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________________ ए बन्ने एक छे के भिन्न छ एनो अमोए बन्ने पुस्तको जोया न होबाथी विचार करी शकता नथी, पण पूनावाळी प्रत माटेनो अनेक विद्वानोए विचार कर्यो छे । टीकाकार योनिप्राभूतनुं प्रमाण आपतां 'द्विविधा योनिः योनिप्रभृतेऽभिहिता सचित्ताऽचित्ता च तत्र सचित्तायोनिर्द्रव्याणि संयोज्य भूमौ निखाते दन्तरहितमनुष्यसादिजात्युत्पत्तिः, अचित्ता योनिद्रव्ययोगे च यथाविधिसुवर्णरजतमुक्ताप्रवालाद्युत्पत्तिरिति' आ प्रमाणे विषय मूक्यो छ । आ विषय पूनावाळी योनिप्रामृतनी प्रतमां नथी एमां तो वैद्यक आदि नो विषय होय तेम लागे छे एटले अहीं टीकाकरे आपेल योनिप्राभूत ए तो पूर्वान्तर्गत एक विभाग ज छ । वृक्षायुर्वेदतुं पण टीकाकारे प्रमाण टाक्युं छे। आ वृक्षायुर्वेद मने प्राप्त थयो न होवाथी एना विषयमा एनो नामोल्लेख करीने ज सन्तोष मानीए छीए। छतां शार्ङ्गधरपद्धतिमां वृक्षायुर्वेद अथवा उपवन विनोद नामर्नु २३६ श्लोक प्रमाण एक प्रकरण सचवाई रहेढुं छे राघवभट्टनो वृक्षायुर्वेद नामनो बीजो पण ग्रन्थ मळे छे एम दुर्गाशङ्कर केवळ रामशास्त्रिजी लखे छे। योगभाष्यनो पण एक स्थळे टीकाकारे आधार आप्यो छे । योगसूत्रना रचयिता महर्षि पतञ्जली छे । योगना प्रवर्तक आ ज आचार्य छे एम मानवानी भूल करवी जोइए नहीं केमके याज्ञवल्क्यस्मृतिमा 'हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः' ए कथनानुसार योगना प्रवर्तक हिरण्यगर्भ छ। पतञ्जलि तो योगना अनुशासक छ । 'अथ योगानुशासनम्' आ योगसूत्र ऊपर तत्त्ववैशारदीमां वाचस्पतिमिश्रे शिष्टस्य शासनमनुशासनम् (१।१) आ प्रमाणे ऊपर कहेल अर्थर्नु ज सूचन करे छ । भारतीय परम्परानुसारे योगसूत्रना कर्ता तथा व्याकरणमहाभाष्यना कर्ता पतञ्जलि एक अभिन्न व्यक्ति छे। योगसूत्रना चतुर्थपादमां विज्ञानवादना खण्डनसूत्रो (१-१४-१५) मळतां होवा छतां पण विज्ञानवाद मैत्रेय अने असङ्गथी अधिक प्राचीन छ । आ पतञ्जलिनो समय शुङ्गवंशना महाराजा पुष्पमित्रना समकालीन छ । आ पुष्पमित्र राजानो समय ई० पू० २२५ लगभग छे । आ योगसूत्रना ऊपर व्यासभाष्य नामनी भाष्यनी रचना थई छ । आ व्यासर्षि पुराणोना कर्ता व्यासमहर्षिथी भिन्न छ । आथी आ भाष्यना प्रणेता कया व्यास छे ? एर्नु प्रतिपादन कठिन छ । ऐतिहासिक विद्वानो लखे छे के विक्रमना तृतीय शतकथी आ व्यास प्राचीन नथी । आ योगभाष्यमां ( ३-१३) संस्थानमादिमद्धर्ममात्र शब्दादीनां विनाश्यविनाशिनाम् , एवं लिङ्गादिमद्धर्ममात्रं सत्त्वादीनां गुणानां विनाश्यविनाशिनाम् , तस्मिन् विकारसंज्ञा' आ पाठ छे। ते ज नयचक्रनी टीकामां पण आवे छे (तृतीयारे) आ पाठ योगभाष्यनो ज छे या बीजा कोई ग्रन्थनो छे आनो निर्णय मुशकिल छ । योगभाष्यना आ वाक्यने उद्धरण तरीके लेवायुं छे माटे तेमनु ज मानवामां आपणने कोई वांधो देखातो नथी। टीकाकारे 'तण्डुलवेयालीय' नुं प्रमाण लीधुं छे आ ग्रन्थ जैन जगतमा ‘पयन्नाना' नामथी प्रसिद्ध छ । आथी आ ग्रन्थ सिंहसूरिंगणी क्षमाश्रमणथी पूर्वनो छ । ५०० श्लोक प्रमाण आ ग्रंथमा जीवनी गर्भावस्थाथी लइने जन्म थया पछीनी दस दशा, संहनन, संस्थानभेद, काळना विश्राम, नाडी संख्यावगेरे वैराग्योत्पादक १ वैद्यकल्पतरु १९३२ मेनो ५ अंक। २ योगेन चित्तस्य, पदेन वाचां, मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ॥ ३ भारतीय दर्शन पृ.३४९। ४ 'इह पुष्पमित्रं याजयामः' (३-२-१२३) तथा 'पुष्यमित्रो यजते याजका याजयन्ति' ( Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002587
Book TitleDvadasharnaychakram Part 4
Original Sutra AuthorMallavadi Kshamashraman
AuthorLabdhisuri
PublisherChandulal Jamnadas Shah
Publication Year1960
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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