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________________ [७० ] टीका-इह यथा कस्यचिद् गोमयादिप्रयोगेण शोधयतस्त्रिधा कोद्रवा भवन्तिः तद्यधा-शुद्धः अर्धविशुद्धाः, अविशुद्धाश्चेति तथा पूर्वकरणेन मिथ्यात्वं शोधयित्वा जीवः शुद्धादिभेदेन त्रिभिः पुंजळव्य स्थापयति । तंत्र सम्यक्त्वावारककर्मरस क्षपयित्वा विशोधिता ये मिथ्यात्वपुद्गलास्तेषा पुजः सम्यग् जिनवचनरुचेरनावारकत्वादुपचारतः सम्यक्त्वमुच्यते xxx। अर्धशुद्धपुद्गलपूजस्तु सम्यगमिथ्यात्वम् । अविशुद्धपुद्गलपुंजः पुनर्मिथ्यात्वमिति । तदेवं पुंजत्रये सत्यप्यनिवर्तिकरणविशेषात् सम्यक्त्वपुजमेव गच्छति जीवः, नेतरौ द्वौ । यदापि प्रतिपतितसम्यक्त्वः पुनरपि । सम्यक्त्वं लभते, तदाऽप्यपूर्वकरणेन पुंजत्रयं कृत्वाऽनिवर्तिकरणेन सल्लाभादेष एव क्रमो द्रष्टव्यः। अर्थात मिथ्यात्वी कोद्रव की तरह मिध्यात्व को अपूर्वकरण के द्वारा तीन पुंज करता है, परन्तु सम्यग दर्शन की प्राप्ति अनिवृत्तिकरण के द्वारा ही होती है । जैसे कोई मनुष्य गोमय आदि प्रयोग से कोद्रव को शुद्ध करता है, कोई कोद्रव को सर्वथा शुद्ध होता है, कोई अद्ध शुद्ध होता है तथा कोई किंचित् भी शुद्ध नहीं होता है उसी प्रकार जीव (मिथ्यात्वो) अपूर्वकरण के द्वारा मिथ्यात्व का शोधन कर- शुद्धादि भेद से तीन पुंज करता है-शुद्ध-अद्ध शुद्ध-अशुद्ध । परन्तु अनिवृत्तिकरण विशेष से जीव केवल सम्यक्त्वपुज में ही आता है, परन्तु बाकी के दो पुज (अशुद्ध-मिथ्यात्व, अद्ध शुद्ध-सम्यगमिथ्यात्व ) में गमन नहीं करता है । जिस समय जीव सम्यक्त्व से पतित होकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करता है उस समय भी अपूर्वकरण से ही तीन पुज कर अनिवृत्तिकरण से ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। __ अनिवृत्तिकरण से जीव फिर कभी अपूर्वकरण में प्रवेश करता है, उस समय अपूर्वकरण में बहुत कम अन्तर्मुहूर्त ठहरकर फिर अनिवृत्तिकरण में प्रवेश कर फिर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इसके विपरीत कर्मग्रन्थ' की यह मान्यता रही १-मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं करोति, तत्प्रविष्टश्चोपशमिकं सम्यक्त्वं लभते, तेन च मिथ्यात्वस्यपुजत्रयं करोति, ततः क्षायोपशमिकपुजोदयात् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं लभते ! -कर्मग्रन्थ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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