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________________ [ ६४.] सहलिकानां प्रदेशवेद्याभावः क्रियते सोऽनिवृत्तिकरणम् xxx | कश्चिच्च मिथ्यात्वं निर्मूलं क्षपयित्वा क्षायिकं प्राप्नोति । - जैन० प्रकाश ५८ ___ अर्थात् अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्यि का भेद होने पर जिस परिणाम से उदय में आये हुए अन्तर्मुहूर्त तक उदय में आने वाले मिथ्यात्वी दलिकों को खपाकर एवं उसके बाद अन्तमहतं तक उदय में आने वाले मिध्यादलिकों को दबाकर उपशमदलिकों का अनुभव किया जाता है अर्थात उनका (अनंतानुबन्धी चतुष्क तथा तीन दर्शन मोहनीय की प्रकृति) प्रदेशोदय भी नहीं रहता है -पूर्ण उपशम किया जाता है उसको अनिवृत्तिकरण कहते हैं तथा कोई जीव मिथ्यात्व का निर्मूल-संपूर्ण क्षय कर क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। षण्डागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है। पढमसम्मत्त संजमं च अक्कमेण गेण्हमाणो मिच्छाइट्ठी अधापवत्तकरण अपुवकरण अणियट्टिकरणाणि कादूण चेव गेहदि xxx। अपूवकरणपढमसमए आउ अवज्जाणं सव्वकम्माणं उदयावलियबाहिरे xxx। पुणो तदियसमयं बिदियसमओकड्डिदव्वादो असंखेज्जगुणं दव्यमोकड्डियं पुत्वं व उदयावलियबाहिराट्ठिदिमादि कादूण गलिदसेसं गुणसेडि करेदि । एवं सबसमएसु असंखेज्जगुणमसंखेज्जगुणं दव्वमोकडिदूर्ण सम्बकम्माणं गलिदसेसं गुणसेडिं करेदि जाव अणियट्टिकरणद्धाए चरिमसमओ त्ति । जेणेव सम्मक्त-संजमाभिमुहमिच्छाइट्ठी असंखेज्जगुणाए सेडीए बादरेइदिएसु पुवकोडाउअमणसेसु दसवाससहस्सियदेवेसु च संचिददव्वादो असंखेज्जगुणं दव्वं णिज्जरेइ । -षट्० ४,२,४,६०।पु १० पृ० २८० से २८२ अर्थात् प्रथम सम्यक्त्व और संयम को एक साथ ग्रहण करने वाला मिथ्यादृष्टि अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को ग्रहण करके ही ग्रहण करता है। अधःप्रवृत्तकरण के पश्चात् अपूर्वकरण के प्रथम समय में आयुकर्म को बाद देकर शेष ज्ञानवरणीयादि सातकों को उदयावलि के बाहर लेकर अपकषण करता है । इस प्रकार मिथ्यात्वी अपूर्वकरण में प्रथम समय में गुण श्रेणि Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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