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________________ [ 8 ] को प्राप्त होता है तथा किसी का गुरुवचन सर औषधोपचार से नाश को प्राप्त होता है और किसी का ज्वर नाश को प्राप्त नहीं होता है। अस्तु, भव्यात्मा में उपयुक्त तीनों प्रकार लागू होते हैं । परन्तु अभव्य में केवल तीसरा प्रकार लागू होता है। अस्तु आत्मा को जिन विशेष अध्यवसायों से ग्रन्थि का सामीप्य प्राप्त होता है, उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। मोह को उत्कृष्ट स्थिति में अनंजानुबंधी चतुष्क से निर्मित राग-द्वेष की प्रन्थि अत्यन्त कर्कश होती है, सपन, गूढ़ और दुर्भध होती है । यह राग-द्वषात्मक ग्रन्थि ही सम्यग्दर्शन में बाधक है। जैसा कि योगशास्त्र वृत्ति में कहा है रागद्वेषपरिणामो, दुर्भदा ग्रन्थि रूच्यते । दुरुच्छेदो दृढ़तरः काष्ठादेरिव सर्वदा ॥५॥ . अर्थात् ग्रन्थि के निकट आने पर भी अनेक आत्माओं में ग्रन्धि भेद का सामर्थ्य नहीं उभरता । यथाप्रवृत्तिकरण के बाद अपूर्व करण आता है। अपूर्वकरण में प्रविष्ट जीव नियमतः शुक्लपाक्षिक होते है अर्थात् देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्त में प्रविष्ट मिथ्यात्वी ही इस कारण में कदम रख सकते हैं। इसमें आत्मदर्शन की भावना तीव्र होती है । इस करण में राग-द्वेषात्मक प्रन्थि के भेदन करने का कार्य प्रारम्भ हो जाता है जैसा कि युगप्रधान आचार्य तुलसी ने जन सिद्धान्त दीपिका में कहा है :येनाप्राप्तपूर्वाध्यवसायेन ग्रन्थिभेदनाय उद्युङ ते, सोऽपूर्वकरणम् । -जैन० प्रकाश श६ अर्थात् आत्मा-जीव जिस पूर्व परिणाम से उस रागद्वोषात्मक ग्रन्थि को तोड़ने की चेष्टा करती है, उसको अपूर्वकरण कहते हैं । भव्य जीव यथाप्रवृत्तिकरण से अधिक विशुद्ध परिणाम को प्राप्त होता है और उन विशुद्ध परिणामों से रागद्वेष की तीव्रतम गांठ को छिन्न-भिन्न कर सकता है । इस करण को समझने के लिए तीव्रधार पशु का दृष्टांत पर्याप्त है-जैसा कि लोक प्रकाश में कहा है तीव्रधारपशु कल्पा पूर्वाख्यकरणेन हि। श्राविष्यकृत्य परं वीर्य ग्रन्थि भिन्दन्ति केचन ॥ .-लोक० सर्ग ३६१८ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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