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________________ [ ३१ ] २: मिथ्यात्वी और योग मन, वचन, काय के व्यापार को योग कहते हैं-मिथ्यात्वी के तीनों ही प्रकार के योग का व्यापार-कार्य होता है। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से, शरीरनामकर्मोदय से योग की प्रवृत्ति होती है। शुभ योग और अशुभ योग के भेद से योग के दो भेद भी किये जा सकते हैं। मिथ्यात्वी के दोनों प्रकार का योग व्यापार होता है। प्रज्ञापना सूत्र में योग (प्रयोग ) के पन्द्रह प्रकार किये हैं।' वस्तुतः वे मन-वचन-काययोग के ही उपभेद है यथा-१. सत्यमनः प्रयोग, २. असत्यमन: प्रयोग, ३. सत्यमृषामनः प्रयोग, ४. असत्यामृषामनः प्रयोग, ५. सत्यवचन प्रयोग, ६. असत्यवचन प्रयोग, ७. सत्यमृषावचन प्रयोग ८. असत्यामृषावचन प्रयोग है. औदारिक शरीरकाय प्रयोग, १०. औदारिकमिश्रशरीरकाय प्रयोग, ११. वैक्रियशरीरकाय प्रयोग, १२. वैक्रियमिश्रशरीरकाय प्रयोग, ११. आहारकशरीरकाय प्रयोग, १४. आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोग और १५. कामणशरीरकाय प्रयोग । उपयुक्त १५ योगों में से मिथ्यात्वी के तेरह योग (आहारकशरीरकाय प्रयोग, आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोग को छोड़कर ) होते हैं। मिथ्यात्वी के भी वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है तथा शरीरनामकर्म का उदय है ही। अतः मिथ्यात्वी के मन, वचन, काय तीनों योग का व्यापार हो सकता है। ___ अस्तु योग - वीर्यान्त राय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से तथा शरीरनाम कर्म के उदय से होता है। चूंकि मिथ्यात्वी का प्रथम गुणस्थान है। मिथ्यावृष्टि गुणस्थान में आहारिक और आहारिकमिश्र को बाद देकर बवशेष तेरह योग होते हैं । षटखंडागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है "संपहि मिच्छाइट्ठीणं ओघालावे भण्णमाणे अत्थि xxx। आहार-दुग्गेण विणा तेरह जोग। -षट० ख० १, १ । टोका । पु० २ । पृ० ४१५ १-प्रज्ञापना पद १६ । सू० १०६८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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