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________________ उपयुक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिथ्यात्वी के भी आत्मा की उज्ज्वलता नहीं होती तो उन्हें प्रथम गुणस्थान में भी नहीं रखा जाता । जवाचार्य ने भ्रमविध्वंसन के प्रथम अधिकार में कहा है कि गुण को अपेक्षा गुणस्थान का प्रतिपादन किया गया है जिसमें मिथ्यात्वी को प्रथम गुणस्थान में सम्मिलित किया गया है। आचार्य भिक्षु ने नव पदार्थ की चौपाई में मिथ्यात्वी के विषय में निर्जरा पदार्थ की ढाल में कहा है 'आठकों में च्यार घनघातिया। त्यांसु चेतन गुणां रीहुवै घात हो । ते अंश मात्र क्षयोपशम रहै सदा । तिण सूं जीव उजलो रहै अंश मातहो ॥५ जिम जिम कर्म क्षयोपशम हुवै । तिम तिम जीव उजलो रहै आम हो । जीव उजलो हुओ ते निर्जरा xx ॥८॥ देश थकी उजलो हुवै। तिण में निर्जरा कही भगवान ।। ज्ञानावरणी री पाँच प्रकृति मम । दोय क्षयोपशम रहै सदीव हो। तिण सूदो अज्ञान रहै सदा । अंश मात्र उजलो रहै जीव हो ॥११॥ मिथ्यासीरै जधन्य दोय अज्ञान छ । उत्कृष्टा तीन अज्ञान हो । देश उणों दस पूर्व भणै । इतलो उत्कृष्टो क्षयोपशम अज्ञान हो ॥१२॥ अर्थात् आठ कर्मो में चार ( ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीयअन्तराय ) धनघाती कर्म है। इन कर्मो से चेतन जोव के स्वाभाविक गुणों की घात होती है। परन्तु इन कर्मो का सब समय कुछ-कुछ क्षयोपशम रहता Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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