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________________ [ २६६ ] अप्पेणं भारंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरम्भसमारम्भेणं वित्ति कप्पेमाणा बहूईवासाई आउयं पालेति पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवन्ति । तहि तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, सहि तेसिं उववाए पण्णत्त । तेसिणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! चउहसवास सहस्साई ठिई पण्णत्ता।" -उववाई सू ६१ यहाँ मिथ्यात्वी के संबंध में कहा गया है कि ग्राम, आकर नगर, निगम, राजधानी, खेड, कर्बट मडंध, द्रोणमुख, पट्टण, वाश्रम, संबाह और सग्निवेषों में मनुष्य (मिथ्यात्वी जीव) होते है-यया स्वभाव से हो भद्र अर्थात् कुटिलपन से रहित, स्वभाव से शान्त अर्थात् क्रोधादि से उपशांत स्वभाव से ही हल्के पत्तले क्रोध, मान, माया और लोभवाले, मृदु-कोमल-अहंकार रहित स्वभाव वाले, गुरुजनों के आश्रित रहे हुए, विनीत, माता-पिता को सेवा भक्ति के करने वाले, अल्प इच्छा वाले अर्थात मोटी इच्छा न रखने वाले, अल्प परिग्रह वाले, अल्प भारम्भवाले, अल्प समारम्भ से आजीविका उपार्जन करनेवाले बहुत वर्षों की आयुष्य व्यतीत करते हैं । आयुष्य व्यतीत करके, काल के समय में काल करके वाणव्यंतर के किसी देवलोक के देवरूप में उत्पन्न होते हैं तथा वहाँ उनकी चौदह हजार वर्ष की स्थिति होती है। यद्यपि सर्व आराधना की दृष्टि से वे परलोक के अना. राधक होते हैं। वाणव्यंतर देव अपने पूर्वजन्म-मिथ्यात्वो अवस्था में कृत सुकृति के कारण होते है । कहा है--- तत्थणं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति, सयन्ति, चिठंति, णसीयंति, तुयट्ठति, रमंति, ललंति, कीलंति, मोहंति । पूरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं कल्लाणाणं कडाणं कम्मार्ण कल्लाणफलवित्तिविसेसे पच्चणुम्भवमाणा विहरति । -अंबुद्दीव पण्णती स.. (१) तेणे भंते ! देवा परलोगस्य भाराहगा ? को इणठे समठे। --उववाई सूत्र --६१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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