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________________ [२५८ ] त्या परत संसार की विपाक सूत्र में छै तिण दान थी रे | विस्तार रे ॥ १ ॥ - मिध्याती री करणी री चौपई ढाल २ अर्थात् सुमुख गायापति ने सुदत्त नामक अपगार को सामने आते हुए देख कर अत्यन्न प्रफुल्लित हुआ तथा अणगार को शुद्ध दान देकर परीत संसार किमा । आगे जरा चिन्तन कीजिये कि बाचायं भिक्षु ने क्या कहा है घणां मिथ्याती श्री भगवान में रे । हरख खूं दीयो निरदोषण दोन रे ॥ तिण दान री करणी नेकहें अशुद्ध छेरे । त्यां विकलां रा घट में घोर अम्बांन रे ॥ १६ ॥ - भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर, मिथ्याती री चौपई ढाल २ पृ० २६० अर्थात् मिध्यात्वी के सुपात्र दान देने की निरवद्य क्रिया सावद्य नहीं हो सकती है । जो उस करणी को 'सावध कहते हैं उनके हृदय में घोर अज्ञान माच्छादित है । दुखः विपाक' सूत्र में पौतम स्वामी के प्रश्न करने पर भगवान् ने कहा है कि मृलोढादि दसों कुमारों ने ( मिध्यात्व अवस्था में ) अपने पूर्व भव में कुपात्रदानादि दिया था, अतः उसका कुफल भोग रहे हैं। इसके विपरीत सुखविपाक सूत्र में भगवान् ने कहा है कि सुबाहुकुमारादि दसों कुमारों ने अपने पूर्व भव में सुपात्रदानादि (मिध्यात्वी अवस्था में) दिया था, अतः उसका सुफल भोग रहे हैं । इस पाठ से भी सिद्ध होता जाता है कुपात्रदान आदि क्रिया सावध है, आशा के बाहर है तथा सुपात्र दानादि क्रिया निरवद्य है तथा जिन आशा के अन्तर्गत है । neer सूत्र में कहा गया है कि सावध क्रिया आज्ञा के बाहर की क्रिया को साधुओं ने परिख्याग कर किया तब फिर उसमें धर्म ही कैसे हो सकता है ? (२) विजय गाथापति ने भगवान् महावीर ( प्रथम मासक्षमण पारणे के दिन ) को अपने घर में प्रवेश करते हुए देखा और देखकर प्रसन्न और संतुष्ट हुआ । वह शीघ्र ही सिंहासन से उतरा और पादुका ( खड़ाऊ ) का त्याग किया। फिर एक पट वाले वस्त्र का उत्तरोसंग किया । दोनों हाथ जोड़ कर सात-आठ चरण Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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