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________________ [ 16 ] सम्बन्धों में व्यवस्था, सहकारिता, सहयोग एवं सह अस्तित्व अभीष्ट होते हैं। एतदर्थ कुछ नियमोपनियम बनाने पड़ते हैं, जो नैतिकता कहलाते हैं और जिनका पालन प्रत्येक व्यक्ति के लिये वांछनीय हो नहीं, आवश्यक भी होता है। अनैतिकता का परिणाम अव्यवस्था, अराजकता और अशान्ति होते हैं। बहुधा स्वार्थपरता, महत्त्वाकांक्षा, ईया, दोष, घृणा, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मनुष्य को नेतिक नियमों की अवहेलना करने के लिये प्रेरित करते हैं। ऐसी स्थिति में समाज भय, लोक भय, राजदण्ड का भय आदि उसकी उच्छृखल प्रवृत्ति पर अंकुश का काम करते हैं। क्योंकि इन नैतिक नियमों को प्रचलित धर्म की भी स्वीकृति प्राप्त होती है, धर्मभय, ईश्वरीयकोप का भय या परलोक का भव भी उक्त नियमों के पालन करने में प्रेरक और सहायक होते हैं। जो धर्म को नहीं मानते वे सामाजिक या नागरिक जीवन की अनिवार्यता अपवा अपनी अन्तरात्मा (काम्शेन्स ) से सदाचार को प्रेरणा लेते हैं। वास्तव में नैतिक नियम यद्यपि वे वैयक्तिक संस्कारों एवं परिवेश से भी प्रभावित होते हैं, प्रायः एक निष्पाप, सरल हृदय, कर्तव्यचेता मनुष्य के सहज स्वभाव के अनुरूप होते हैं, और इसीलिये वे धर्म का अंग या व्यावहारिक रूप मान्य किये जाने लगे। उनके सम्यक् पाचरण से मनुष्य का आत्मविकास, अथवा उसके व्यक्तित्व का विकास होता ही है। इस दृष्टि से थामसफुलर की यह उक्ति सत्य ही है कि 'सम्यक जीवन ही एकमात्र धर्म है।' नैतिकता का आधार ही धर्म है। प्रत्येक धर्म हिंसा-झूठ-चोरी-कुशील-शोषण आदि पापों का निषेध करता है। धर्म तो मनुष्य में सद्गुणों का वपन एवं पोषण करता है, धर्म को भाधार बनाकर ही पुण्याचरण किया जा अकता है। धर्म तो प्रत्येक व्यक्ति में अन्तनिहित उस अनन्त ऊर्जा की अनुभूति, उपलब्धि एवं अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त साधन है, जो कि उसका जन्मसिद्ध अधिकार एवं निजी स्वभाव है और पो चरित्र निर्माण, समस्त अच्छाइयों और महानताओं के विकास तथा दूसरों को शान्ति प्रदान करने में प्रस्फुटित होती है । धर्म मात्र नैतिकता या सदाचरण नहीं है । वह तो आत्म-विकास की प्रक्रिया है, जीवनोनयन है, समग्र जीवन का दिव्यीकरण है, स्वस्वरूप का उद्घाटन एवं आविष्कार है, बाह्य एवं आभ्यन्तरिक उत्थान का साधक है और नितान्त वैयक्तिक है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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