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________________ | १२० ] संजरा - ओदइए, उवसमिए, खइए, छव्विधे भावे पण्णत्ते, खओवसमिए, पारिणामिए, खण्णिवातिए । -ठणांग ठाणा ६ सू १२४ - अणुओगदाराइ सू २३३ अर्थात् भाव के छः भेद होते हैं, यथा - औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सन्निपातिक । सन्निपातिक भाव संयोग विशेष से बनता है ।" अतः भाव के पांच भेद प्रधानतः हैं । उपर्युक्त पाँच भावों में से मिथ्यात्वों के तीन भाव ओमिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक होते हैं । वेद्य अवस्था को उदय कहते है अर्थात् उदीरणाकरण के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से आठों कर्मों का जो अनुभव होता है, उसे उदय कहते है । उदय के द्वारा होने वाली आत्म-अवस्था को Refer भाव कहते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने कहा है गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञाना संयता सिद्वत्वलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये कैके केक षड्भेदाः । - तस्वार्थसूत्र अ २ सू ६ अर्थात् औदयिक भाव के इक्कीस भेद किये गये हैं – यथा – चारगतिनरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति ; चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ ; तीन लिंग - स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग; मिथ्यादर्शन अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व, छह लेश्या - कृष्ण, नील, कापोत, तेजो पद्म और शुक्ललेश्या । मिथ्यात्वी में औदयिक भाव के उपयुक्त इक्कीस भेद मिलते है । तेजो, पद्म और शुक्लेश्या के द्वारा मिथ्यात्वी के पुण्य का आस्रव होता है तथा पुण्य का आश्रव औदयिक भाव से होता है । घातिकर्म के विपाक वेद्याभाव को क्षयोपशम कहते हैं । क्षयोपशम से होने वाली आत्म-अवस्था को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । कहा है १ सन्निपातो — मेलकस्तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः । Jain Education International 2010_03 - ठाण० ठाण ६ । सू १२४ टीका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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