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________________ २: मिथ्यात्वी और निर्जरा तपस्या के द्वारा आत्मा से कर्मो के विच्छेद होने को निर्जरा कहते हैं। निर्जरा सकाम भी होती है और अकाम भी। मिथ्यात्वी के सकाम निर्जरा भी होती हैं। सकाम निर्जरा में महान फल बतलाया गया है-जसा कि योग शास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा हैसकामनिर्जरा सारं तप एव महत्फलम् ।। -योगशास्त्र प्र०१ मिष्यात्वी के सकाम निर्जरा नहीं होती है-ऐसा सिद्धान्त में किसी भी स्थल पर उल्लेख नहीं किया गया है। जिस प्रकार सम्यक्त्वी के सकाम और अकाम-दोनों प्रकार की निर्जरा मानी गई है उसी प्रकार मिथ्यात्वी के भी सकाम क्या अकाम–दोनों प्रकार को निर्जरा मानी गई है । कई मिथ्यात्वी भी आत्म-उज्ज्वलता-मोक्ष की अभिलाषा से तपस्या आदि सद् अनुष्ठानिक क्रियाएँ करते हैं उनके द्वारा उन मिथ्यात्वी जीवों के सकाम निर्जरा होती है । यह ध्यान में रहे कि असंज्ञो मिथ्यात्वी जीव तथा अभव्य जीवों (चाहे संजी अभव्य भी क्यों न हो) के सकान निर्जरा नहीं होती।' जिस निरवद्य क्रिया में आत्म-उज्ज्वलता का लक्ष्य नहीं है वहाँ अकाम निर्जरा ही होगी चाहे उस क्रिया को करने वाला सम्यक्स्वी जीव क्यों न हो। यदि वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम किसी भी जीव को नहीं होता तो अकाम निर्जरा भी नहीं होती। अभव्यजीव अकाम निर्जरा के द्वारा उत्कृष्टतः २१ वे देवलोक ( नववे वेयक में) में उत्पन्न हो सकते हैं। ग्रंथों में कहा जाता है कि नाभी राजा की पत्नि मरूदेवी माता (भगवान ऋषभदेव की माता) को अपने जीवन काल में दुःख नहीं देखना पड़ा -६५५३६ संतान परम्परा (पीढियाँ) को देखा । इसका कारण था कि अपने पूर्व भव-निगोद के भवों में अकाम निर्जरा बहु मात्रा में हुई। अनादि . १-अभश्य जोव स्थिति की अपेक्षा अनादि अनन्त है अतः वे कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते । उनमें केवल प्रथम गुणस्थान है। २-प्रज्ञापना टीका, योगशास्त्र आदि । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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