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________________ चतुर्थ अध्याय १ : मिथ्यात्वी के कर्मों के क्षयोपशम का सद्भाव मिथ्यात्वी में कर्मों के शयोपशम का. सद्भाव नियम से होता है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय-इन पार पातिक कर्मों का क्षयोपशम होता है। यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षयोपशम में परस्पर तारतम्य रहता है । कहा है "सधजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडियो (चिटुइ)। जह पुण सोऽवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्त पाविजा" - "सुट ठुवि मेहसमुदए, होइ पभाचंदसूराणं।" -नंदी सू७७ अर्थात अक्षर का अनन्तवांमाग सर्वजीवों में होता है। मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का अनन्तवां भाग सदा अनावृत्त रहता है। अगर वह अनंतवां भाग भी आवृत्त हो जाय तो जीव-अजीव रूप में परिणत हो जाता चूंकि चैतन्य जीव का लक्षण है। बहुत सघन बादल के पटल से बाच्छादित होने पर भी चंद्रसूर्य की प्रभा का अस्तित्व रहता ही है अर्थात् कुछ न कुछ प्रकाश होता ही है। इसी प्रकार अनंतानंत ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय के कर्म परमाणुओं से आत्मप्रदेश के आवेष्टित होने पर भी मिथ्यात्वो के सर्वजधन्य आदि मात्रा रहती ही है, वह ज्ञान मात्रा मतिश्रुतात्मक-अचक्षुदर्शनात्मक है। मिथ्यात्वी के कुछ अधिक क्षयोपशम होने से विभंग अज्ञान-अवधि दर्शन भी उत्पन्न हो जाते हैं। . ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षयोपशम प्रत्येक जीव में मिलता है उसी क्षयोपशम से आत्मा का विकास होता है। जैसे-जैसे क्षयोपशम से मिथ्यात्वी के आत्मा की उज्ज्वलता होती है वैसे-वैसे उसकी आत्मा का विकास होता जाता है। इस प्रकार उनके विकास होते-होते सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं । यदि प्रारंभ में मिथ्यात्वो के आत्म उज्ज्वलता किंचित् भी नहीं होती तो वे किस प्रकार क्षयोपशम से आत्मा का क्रमशः विकास कर सकते है? मिथ्यात्वी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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