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________________ ७२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हैं। इसीलिए इन वर्गणाओं का विस्तृत विवेचन आवश्यक है। क. आहारक वर्गणा आहारक नामकी प्रथम वर्गणा औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन प्रकारके.शरीरोंकी निर्मात्री है । ये तीनों शरीर, यद्यपि उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं, परन्तु तैजस और कार्माण शरीर की अपेक्षा अति स्थूल हैं । सुखलाल संघवी ने स्थूल - सूक्ष्मकी विवेचना करते हुए कहा है कि स्थूल और सूक्ष्मका अर्थ है, रचनाकी शिथिलता और सघनता । उदाहरणार्थ भिंडीकी फली और हाथीके दाँत दोनों समान आकारके होने पर भी भिंडीकी रचना शिथिल है और दाँत की रचना ठोस अर्थात् सघन है। औदारिक शरीर सबसे अधिक स्थूल है, वैक्रियिक उससे सूक्ष्म और आहारक शरीर इन सबसे सूक्ष्म है। ___ आहारक वर्गणाका प्रथम कार्य औदारिक शरीरका निर्माण करना है। उदार अर्थात् सब शरीरोंसे स्थूल होने के कारण ही इसे औदारिक शरीर कहा जाता है। मनुष्य, पशु, पक्षी और कीट पतंगादिके शरीर इसी कोटि में गिने जाते हैं। ये परस्पर एक दूसरेसे प्रतिघातित होते हैं। आहारक वर्गणाका दूसरा कार्य वैक्रियिक शरीरका निर्माण करना है । यह शरीर देव और नारकियोंको प्राप्त होता है । विशेष तपस्या द्वारा प्राप्त लब्धि विशेषसे वैक्रियिक शरीर मनुष्योंको भी प्राप्त हो सकता है। एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकारके शरीरोंका निर्माण करना विक्रिया है, विक्रिया प्रयोजन होने के कारण ही इस शरीरको वैक्रियिक शरीर कहा जाता है। यह शरीर भी यद्यपि परमाणुओंके संयोगसे बनता है, परन्तु वैक्रियिक शरीरके परमाणुओंमें जातियताकी अपेक्षा भेद होता है । यद्यपि वैक्रियिक शरीरके परमाणु स्थूलताका उल्लंघन नहीं कर पाते, परन्तु फिर भी औदारिक शरीरकी अपेक्षा बहुत अधिक सूक्ष्म होते हैं। इसी कारण सिद्धान्तमें इनका कार्यभूत वैक्रियिक शरीर भी औदारिक शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म माना गया है। १. संघवी सुखलाल, तत्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ०७२ २. पर पर सूक्ष्मम्, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र ३७ ३. णाम णिरूत्तीए उरालमिदि ओरालिए" षट्खण्डागम १४, सूत्र २३७, पृ० ३२२ ४. वैक्रियकमौपपादिकं लब्धिप्रत्ययं च । तत्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४६,४७ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९१ ६. औदारिक स्थूल तत: सूक्ष्मम् वैक्रियिकम्, सर्वाथसिद्धि, पृ० १९२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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