SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन प्रकार शुद्ध तात्त्विक दृष्टिसे इनकी सत्ता ही सिद्ध नहीं होती। इस प्रकार जैन दर्शनमें रागादि भाव रूप चिदाभासी जगत्को अन्यदर्शनोंकी भाँति सर्वथा मिथ्या नहीं कहा है, अपितु अपने अनेकान्तवादका आश्रय लेकर एक अपेक्षासे इसे जीवका परिणाम कहा है, दूसरी अपेक्षासे पुद्गलका परिणाम कहा है. तीसरी अपेक्षासे दोनोंके संयोगसे उत्पन्न विलक्षण परिणाम कहा है और चतुर्थ दृष्टिसे रागादि भाव रूप जगत्की सत्ता ही नहीं है। __ इन चारों दृष्टियोंमें से कर्मसिद्धान्त, दूसरी दृष्टिको आधार मानकर अपनी विवेचना प्रस्तुत करता है । अत्यन्त विशुद्ध होने के कारण इस दृष्टिमें जीवको त्रिकाल निर्विकार और शुद्ध माना जाता है, जितना भी चिदाभासी जगत है, वह पुद्गलका ही कार्य है, क्योंकि मन बुद्धि आदि अथवा रागद्वेष आदि भावोंके रूपमें जो कुछ भी दृष्ट है, उसकी व्याप्ति पुद्गलके साथही घटित होती है, चेतनाके साथ नहीं। इन्द्रियोंके विषयभूत कार्मण पुद्गलोंके होने पर ही रागद्वेषादि चिदाभासी जगत्की सत्ता होती है। कार्मण वर्गणा रूप पुद्गलोंके न होने पर रागद्वेषादि चिदाभासी जगत्की सत्ता नहीं होती । जैसे मुक्त-जीवमें कार्मण शरीरका अभाव हो जानेके कारण रागद्वेषादि चिदाभासी जगत्की सत्ताका भी अभाव हो जाता है। ___ इस प्रकार जैन मान्य पुद्गलमें केवल महाभूत ही नहीं आते, अपितु चिदाभासी जगत् भी आ जाता है । इसी कारण शरीर आदि तथा कर्म, नोकर्म, वचन, मन, उच्छवास, निश्वास सुख-दु:ख, जीवन-मरण आदिको पुद्गलका ही कार्य माना गया है, नेमिचन्द्राचार्यने कहा भी है - "देहादीणिव्वत्तण कारणभूदा हु णियमेण। २ । उमास्वामीने भी शरीर वचन, कर्म आदि चिदाभासी जगत्को पुद्गलका ही कार्य कहा है। इसी तथ्यको हरमन याकोबीने भी स्पष्टतया कहा है कि जैन सिद्धान्तमें कर्मको पौद्गलिक कहा गया है। डॉ० हिरियन्ना के अनुसार भी जैन मान्य पुद्गल नित्य है, जिनमें प्राणियों के शरीर ज्ञानेन्द्रियाँ और मन भी सम्मिलित हैं। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ०५७० २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ६०६ ३. पूर्व निर्दिष्टं पुद्गलके कार्य 8. Jaina understanding of Karma is thoroughly materialistic के.के.मित्तल, मैटिरियलिजम इन इण्डियन थॉट, पृ० १२० ५. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy