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________________ पृष्ठभूमि अनेक ग्रन्थों की रचना करने वाले इन्द्रभूति जो कि आज गौतम गणधर के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे "ग्रन्थकर्ता" कहलाते हैं। जैन वाड्.मय की मौलिक शास्त्र रचना द्वादशांग वाणी के नाम से प्रसिद्ध है। प्रत्येक अंग अनेक पूर्वो में और प्रत्येक पूर्व अनेकों वस्तुगत अधिकारों में और प्रत्येक वस्तुगत अधिकार अनेक प्राभृतों में विभाजित किये गये हैं । इस प्रकार से विस्तृत जैन वाड्.मय में जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों का विस्तृत एवं स्पष्ट विवेचन प्राप्त होता है । करणानुयोग जैन बाड्.मय के इस विशाल साहित्य में कर्म सिद्धान्त का विवेचन करने वाला विभाग “करणानुयोग" कहलाता है । करण शब्द के दो अर्थ जैन दर्शन में प्रसिद्ध हैं - एक जीव के परिणाम और दूसरा इन्द्रिय । कर्म सिद्धान्त में करण शब्द परिणाम अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। जीव के राग द्वेषादि परिणाम ही उसके कर्म कहलाते हैं, जिनके फलस्वरूप उसे नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चतुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। यह भ्रमण ही संसार कहलाता है। इसलिए करणानुयोग में तीन बातों का उल्लेख किया गया है - जीव के परिणाम, विविध कर्म, और उनके फलस्वर. प्राप्त होने वाला चतुर्गति रूप संसार। जीव के परिणामों का विवेचन करने वाला जीवकाण्ड, विविध प्रकार के कर्मों तथा उनकी बन्ध उदयादि ॐाओं को दर्शाने वाला कर्मकाण्ड और संसार भ्रमण के स्वरूप का चित्रण करने वाला लोक विभाग, इन तीन अवान्तर विभागों द्वारा दर्पण के समान विषय का प्रतिपादन करने वाला अनुयोग करणानुयोग है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध जीव काण्ड और कर्मकाण्ड को आधार मानकर प्रस्तुत किया गया है। - १. चौदसपइण्णयाण...तेणिदभूदि..गंथ कत्तारो। धवला टीका, पुस्तक ९,खण्ड ४, सूत्र ४४, पृ० १२६ २. (क). करणा:परिणामाः, धवला टीका, पुस्तक १, खण्ड १, सूत्र १६, पृ० १८० (ख). करण चक्षुरादि, राजवार्तिक, अध्याय ६, सूत्र १३, पृ०५२३ ३. जो खलु संसारत्थो जीवो ततो दुपरिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गति सुगति । पंचास्तिकाय, गाथा, १२८ लोकालोक विभक्तेर्युग परिवृतेश्चर्तुगतीनां च आदर्शमिव तयामतिरवैति करणानुयोगं च । समन्तभद्राचार्य, रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक ४४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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