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________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त- एक अध्ययन सत् का विनाश और असत् का उत्पाद तीन कालमें भी सम्भव नहीं है। समन्तभद्राचार्य ने कहा है- नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो ।" ६ अतः यह जगत् वैषम्य असत् है, स्वाभाविक न होकर कृतक और सहेतुक है, इसीलिए दु: खकारी और सन्तापकारी है। जैन दर्शनके अनुसार यह वैषम्य जीव तथा कर्म पुद्गलोंके अनादि संयोगसे उत्पन्न है। जीवके रागद्वेषादि परिणाम इस वैषम् हेतु हैं, परन्तु जीव तथा पुद्गल जैन मान्य दो द्रव्य हैं, जिनका स्वभाव पृथक्-पृथक् है । इसी कारण दोनों का संयोग स्वर्णपाषाण की भाँति है, जिसे कभी भी पृथक किया जा सकता है, सांख्यमें इसे प्रकृति और पुरूषका संयोग कहा है, वेदान्त में ब्रह्म पर अविद्याका आवरण कहा है। दोनों का पृथक्त्व ही मुक्त है । इन दोनोंका संयोग कैसे हुआ, इस विषयमें यद्यपि सभी दर्शनों में विभिन्नता है, परन्तु यह वैषम्य संयोगके ही कारण है, इसमें सभीका एक मत है पंच समवाय इस बाह्याभ्यन्तर जगत् के कारण पर विचार करते हुए अनेक प्रकारके वादों का जन्म हुआ । काल ही सबको उत्पन्न करता है, काल ही सबको नष्ट करता है, प्राणियों के सोनेपर भी काल जागृत रहता है, कालको ठगा नहीं जा सकता, इस प्रकार कालको ही जगत् का कारण मानने वाला कालवाद है, परन्तु कालवाद प्राणीके पुरुषार्थको पंगु बना देता है और मनुष्य को कर्म करने से विरत कर देता है, जिससे वह मुक्तिका पुरूषार्थ नहीं कर पाता । जगत् में जो कुछ भी व्यवस्था है स्वभाव के ही कारण है, इस प्रकार केवल स्वभाव को ही जगत् का कारण मानने वाला “स्वभाववाद है ।" संसारकी प्रत्येक घटना पहले से ही नियत है, इस प्रकार नियतिको ही मानने वाला “नियतिवाद" है, किसी निश्चित कारणके बिना अकस्मात् कार्य की निष्पत्तिको मानने वाला " यदृच्छावाद" है । केवल पूर्वकृत कर्मों के भरोसे बैठे रहना और किसी प्रकारका पुरुषार्थ न करना " दैववाद" है, इसमें मनुष्य भाग्य के हाथ का खिलौना बनकर जीता है । दैववाद पूर्व कुकर्म की सत्ता पर विश्वास रखता है. परन्तु नियतिवाद कर्म के अस्तित्वको १. (क) स्तोत्र, श्लोक २४ - (ख.) भावस्सणत्थि णासो णत्थि अभावस्स चैव उप्पादो, आचार्य कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय, गाथा १५, तुलनीय भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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