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________________ १७० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हितकारी और यथार्थ वचन बोलना ही सत्य धर्म है । लोभ का त्याग करना ही उत्तम शौच है । इन्द्रियोंपर नियंत्रण रखना संयम है। मलिन वृत्तियों को निर्मूल करने के लिए यथाशक्ति कठोर साधना करना तप है । अपने पास होने वाले ज्ञानादिको प्राणिमात्र के हितके लिए प्रदान करना त्याग धर्म है, किसी भी वस्तुमें ममत्व बुद्धि न रखना आकिंचन्य धर्म है । ज्ञानादिके अभ्यासके लिए इन्द्रिय विषयोंका त्याग करके, ब्रह्मचर्य व्रत पूर्वक गुरूकुलमें निवास करना ब्रह्मचर्यधर्म है। धर्मके इन दस लक्षणोंका वर्णन पूज्यपादजी और कुन्दकुन्दाचार्यने सर्वार्थसिद्धि और बारस अणुवेक्खामें किया है।'.. उक्त दस धर्मों का विवेचन गीतामें निर्दिष्ट दैवी सम्पदासे साम्यता रखता है, क्योंकि गीतामें दैवी सम्पदाके अन्तर्गत मार्दव, आर्जव, क्षमा, शौच, दया, दान, संयम आदि विविध गुणोंका वर्णन किया गया है। ५. अनुप्रेक्षा श्री जिनेन्द्र वर्णीने कोशमें अनुप्रेक्षाका परिचय देते हुए कहा है कि किसी बात का पुन: पुन: चिन्तन करते रहना अनुप्रेक्षा है। मोक्ष मार्गकी वृद्धिके अर्थ बारह प्रकारकी अनुप्रेक्षाओंका कथन जैनागममें प्रसिद्ध है, इन्हें बारह भावनायें भी कहते हैं । इन भावनाओंका चिन्तन करने से शरीर और भोगोंसे विरक्ति और साम्य भावमें स्थिति होती है । उमास्वामीने इन बारह अनुप्रेक्षाओंको सूत्रमें कहा है जो इस प्रकार हैं - “अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्याश्रवसंवरनिर्जरालोक बोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा:।" अनित्य, अशरणादि बारह भावनाओंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है -- १. अनित्यानुप्रेक्षा- क्षीर-नीरके समान जीवके साथ निबद्ध यह शरीर और भोगोपभोगके साधन, नित्य और स्थिर नहीं हैं, सभी नाशको प्राप्त होने वाले हैं, ऐसा चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। इस प्रकारके चिन्तनसे प्राप्त शरीर और भोगों में, आसक्ति कम हो जाती है और उनका वियोग होनेपर दु:ख नहीं होता। . १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४१२-४१३, बारस अणुवेक्खा , गाथा ७१.८० २. भगवद्गीता, अध्याय १६, श्लोक १,२,३ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग प्रथम, पृ०७२ ४. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ७ ५. बारस अणुवेक्खा, गाथा ६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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