SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ अध्याय कर्ममुक्तिका मार्ग संवर निर्जरा - आश्रव निरोध: संवरः स: गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रै: तपसा निर्जरा च; (तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र १-३) १.. कोंकी अनादिकालीन परम्परामें पुरुषार्थका सार्थक्य जीव, पुद्गल, कर्मबन्ध, बन्धके भेद प्रभेदों और कर्मों की विविध अवस्थाओंके निर्देशनसे यह स्पष्ट है कि जीवके योग तथा उपयोगके निमित्तसे कर्म पुद्गलोंका बन्ध होता रहता है और परिपाक काल आनेपर उदय हो जाता है । फलोन्मुख होनेके समय जीवके जैसे परिणाम होते हैं, उसी प्रकारका बन्ध पुन: हो जाता है। इस प्रकार बन्धसे उदय और उदयसे बन्धका चक्र स्वत: चलता रहता है। इस प्रकारकी अटूट परम्परा अनादि कालसे चल रही है। क्या इस अटूट परम्पराका अन्त किया जा सकता है। यदि किया जा सकता है तो कैसे किया जा सकता है ? कौन सा ऐसा समय है, जिसका उपयोग करके जीव अपने पुरूषार्थको सार्थक्य कर सकता है ? इन प्रश्नोंका युक्तियुक्त उत्तर दिया जा सकता है । इस अटूट परम्पराको छिन्न-भिन्न करने की शक्तिजीवमें विद्यमान होती है। दासगुप्तके अनुसार यदि जीवमें अनन्त वीर्य नहीं होता, तो वह अनन्त काल तक बन्धन बद्ध रहता। कर्मने जीवकी अनन्त शक्तियोंको आवृत भले ही किया हुआ है, परन्तु ये कर्म जीवको महत्तम कल्याणकी स्थितिसे वंचित नहीं कर सकते। अत: कर्मकी अटूट परम्परा को छिन्न-भिन्न अवश्य किया जा सकता है। कर्मके इस अनादि चक्रको सान्त बनाने के लिए संवर तथा निर्जरा के पथका अनुगमन आवश्यक है। कर्म प्रवेश का निरोध करने वाली प्रक्रिया संवर कहलाती है और पूर्वबद्ध कर्मोकी समय से पूर्व विपाककी क्रिया निर्जरा कहलाती है। संवर १. दास गुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २१६ २. वही, पृ०२०४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy