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________________ SALMAIvallopathetana . . . बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १२५ तज्ञान त्रैकालिक विषयोंमें प्रवृत्त होता है । मतिज्ञानमें शब्दोल्लेख नहीं होता और श्रुतज्ञान शब्दोल्लेख सहित होता है' पुस्तकोंके पढ़ने अथवा सुननेसे जो जान प्राप्त होता है, वह भी श्रुतज्ञान कहलाता है । श्रुतज्ञानके अनेक भेद हैं। उन सबको आवरण करने वाले कर्मोको “श्रुतज्ञानावरणीय" कहते हैं। श्रुतज्ञानावरणीयकी संख्यात प्रकृतियाँ हैं जितने अक्षर हैं तथा जितने अक्षर संयोग हैं उतनी ही श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं।' ३. अवधिज्ञानावरणीय अवधिज्ञानको जो कर्म आवृत करते हैं उन्हें अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है इसी कारण उनको आवृत करने वाले कर्म भी अनेक होते हैं । अवधिज्ञानका परिचय देते हुए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशमें कहा गया है कि परिणामोंकी विशुद्धताके प्रभावसे कदाचित् किन्हीं साधकोंको एक विशेष प्रकारका ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, जिसकी सहायतासे पांचों इन्द्रियों और मनके अवलम्बनके बिना भी अंतिम स्कन्ध पर्यन्त परमाणु आदि मूर्तीक पदार्थों को प्रत्यक्ष रूपसे जाना जा सकता है। इसे ही “अवधिज्ञान" कहा जाता है। यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमासे युक्त होकर अपने विषयभूत पदार्थको जानता है, इसलिए भी इसको अवधिज्ञान कहा जाता है।" - अवधिज्ञान दो प्रकारका होता है | जो अवधिज्ञान जन्म लेते ही प्रकट हो जाता है वह "भव प्रत्यय" है । इसके लिए विशेष साधनाकी आवश्यकता नहीं होती। देव तथा नारकियोंको न्यूनाधिक रूपमें जन्मसिद्ध अवधिज्ञान अवश्य होता है, जिससे वे अपने पहले भवोंको भी जान लेते हैं।६ तपस्या तथा साधना विशेषके द्वारा उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान “गुण प्रत्यय" कहलाता है, यह मनुष्योंको तथा कभी-कभी तिर्यंचोको भी होता है । तिर्यचों और मनुष्योंको होनेवाला अवधिज्ञान छ: प्रकारका होता है। १. तत्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ०२४ २. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, पृ० ३० ३. सुदणाणावरणीयस्सकम्मस्ससंखेन्जाओपयडीओ।जावदियाणि अक्खराणि, अक्खरसंजोगावा। षटखण्डागम १३, भाग ५, सूत्र ४४,४५ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० १९२ ५. पंच संग्रह, प्राकृत, अधिकार १, गाथा १२३ ६. भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १, सूत्र २१ ७. “क्षयोपशमनिमित्त षडविकल्प: शेषाणाम". तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १. सूत्र २२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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