SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १२१ जैन दर्शनानुसार, ज्ञानावरण कर्म हों या अन्य कर्म, सबको अत्यन्त स्पष्ट रूपसे एक प्रकारका जड़ द्रव्य ही कहा है, परन्तु इसके साथ ही अज्ञान और रागद्वेषादि आत्मगत परिणामोंको बौद्ध, न्यायादि दर्शनोंके समान संस्कारात्मक भी माना गया है, जो जड़ कर्मों का कारण तथा कार्य भी है । जैन दर्शनमें जिसे ज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है, उसे ही बौद्ध दर्शनमें अविद्या और ज्ञेयावरण, सांख्ययोगदर्शनमें अविद्या और प्रकाशावरण और न्यायवैशेषिक तथा वेदान्त दर्शनमें अविद्या और अज्ञान कहा जाता है। वेदान्त, सांख्य तथा न्यायवैशेषिक दर्शनमें पुरूषको यद्यपि कूटस्थ नित्य माना गया है और जैन दर्शनने जीवको परिणामि नित्य माना है। परन्तु आवृत और अनावृत विषयमें जैन दर्शनकी वेदान्त दर्शनसे साम्यता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने दोनों दर्शनोंकी साम्यता दिखाते हुए कहा है - जैन मतानुसार ज्ञान आवरक तत्त्व, चेतनत्वमें ही रहकर, अपने स्वाश्रय चेतनको ही आवृत करता है, जिससे स्वपर प्रकाशक चेतना अपना पूर्ण प्रकाश नहीं करने पाती, न ही पर पदार्थों को पूर्ण रूपसे प्रकाशित कर पाती है । वेदान्तके अनुसार भी अज्ञान ब्रह्मनिष्ठ होकर ही उसे आवृत करता है, जिससे अखण्डत्व रूपसे प्रकाश नहीं हो पाता । जैन प्रक्रियाका शुद्धचेतन और ज्ञानावरक तत्त्व वेदान्त प्रक्रियाके चिद्रूप ब्रह्म और अज्ञानसे साम्यता रखते हैं ।२ . ज्ञानावरणीय प्रकृति बन्धके कारण ज्ञानको आवृत करने वाले कर्म किस कारणसे आत्मासे संयुक्त होते हैं, इसका निर्देशन करते हुए उमास्वामीने पद कारणों का निर्देश किया है - "तत्पदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता: ज्ञानदर्शनावरणयो:"३ ज्ञान अथवा ज्ञानके धारक पुरूषोंकी अविनय करना और उनके प्रति मनमें दुष्ट भाव लाना प्रदोष है, अपने ज्ञानको छिपाना निह्नव है, ईर्ष्या के कारण योग्य पात्रको भी ज्ञान न देना 'मात्सर्य' है, ज्ञानमें विध्न डालना 'अन्तराय' है। ज्ञानके प्रकाशक साधनोंकी मन वचन कायसे विराधना करना आसादना" है और प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना अथवा ज्ञानका अभ्यास करने वालों को क्षुधादिक बाधा पहुंचाना 'उपघात' है।' इन छह प्रमुख कारणोंके अतिरिक्त १. पूर्व निर्दिष्ट, अध्याय दो। २. उपाध्याय यशोविजय, ज्ञानबिन्दु प्रकरणम्, संवत् १९९८, पृ०१५-१६ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १० ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०.३२७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy