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________________ पंचम अध्याय कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १. मिथ्यात्दर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा:बन्धहेतव : २. सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स: बन्ध: ३. प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तविधयः; (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र १-३।) सामान्य परिचय कर्मबन्धके विषयमें पूर्व अध्यायमें विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। पुद्गलका जीवके साथ नीर-क्षीरके समान संबंध हो जाना ही कर्मबन्ध है । कर्म बन्धको प्राय: सभी दर्शनोंने किसी न किसी रूपमें स्वीकार किया है । जीव और अजीव तत्त्वों के एक हो जानेसे ही संसारकी समस्त समस्यायें तथा विषमतायें उत्पन्न होती हैं, दोनों तत्त्वोंके पृथक् हो जाने पर सब समस्यायें स्वत: ही दूर हो जाती हैं। जीव और अजीव तत्त्वोंका परस्परमें बन्ध किस कारणसे होता है यह जानकर ही इससे मुक्ति का उपाय किया जा सकता है। कमों के बन्धको एक मतसे स्वीकार करते हुए भी सभी दर्शनोंमें कर्मबन्धके स्वरूपके विषयमें अपना विशिष्ट मत है। इसी कारण कर्मबन्धके कारणोंको भी सभी दर्शनों में विभिन्न रूपसे कहा गया है। अत: विभिन्न दर्शनोंकी दृष्टिसे कर्मबन्धके कारणोंका विश्लेषणात्मक अध्ययन आवश्यक है। १. विभिन्न दर्शनोंमें कर्मबन्धके कारण१. उपनिषदोंमें कर्म बन्धका कारण उपनिषदों में कर्मबन्धका कारण बताते हुए कहा गया है कि देहादि अनात्म पदाथोंमें आत्माभिमान करना ही कर्मबन्धका कारण है। इसे ही असुरोंका ज्ञान भी कहा गया है, जिसके कारण आत्मा परवश हो जाता है । परवश हो जाने पर आत्मा व्यापक ज्ञानसे वंचित रह जाता है और जन्म, जरा, मृत्यु आदिको ही यथार्थ मानकर कर्म बन्ध करता रहता है ।२ १. छान्दोग्य उपनिषद, अध्याय ८, खण्ड ८, मंत्र ४.५ २. वही, अध्याय७, खण्ड २३, मंत्र १. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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