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________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें १०५ मान्य " अनियतविपाक” के समान समझा जा सकता है । जैन मान्य निकाचित करणकी योग मान्य “ नियत विपाक" से समानता है, क्योंकि निकाचित अवस्थाके कर्मों के फलों में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, उनका विपाक नियमसे निश्चित समयमें, उसी रूपमें ही होता है । ' जैन दर्शनके "सत्वकरण" को वेदान्त दर्शनके संचित कर्म के समान समझा जा सकता है, क्योंकि यह कर्मों की वह अवस्था है, जिसमें कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए भी संचियमान कोषके रूपमें विद्यमान रहते हैं । जैन दर्शनकी उदयावस्थाको वेदान्त मान्य प्रारब्ध कर्मके समान समझा जा सकता है जिसका भोग अवश्य करना पड़ता है। जैन मान्य बन्ध अवस्थाकी तुलना वेदान्त मान्य " क्रियमाण कर्मों" से की जा सकती है क्योंकि वर्तमानमें मन-वचन- कायके द्वारा किये गये कर्म ही मोह, राग, द्वेषादिके कारण बन्धको प्राप्त हो जाते हैं और इनका फल आगामी समयमें प्राप्त होगा । इसी कारण वेदान्त दर्शनमें क्रियमाण कर्मको आगामी कर्म भी कहा जाता है । श्री निवासने कहा भी है कि जैन मान्य बन्धु उदय और सत्त्व करणका यह विभाजन वेदान्त मान्य आगामी, प्रारब्ध और संचित कर्मके अनुरूप है । २ निम्नलिखित तालिकामें गुणस्थानों में अर्थात् विकासक्रमके सोपानों में दस करणोंका दिग्दर्शन कराया गया है । गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन आगे पृथक् अध्यायमें किया जाना है। यहां केवल दस करणों की दृष्टिसे निर्देशन किया गया है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त दसकरण संभव होते हैं, क्योंकि यहां तक जीवोंमें कर्म की प्रत्येक अवस्था किसी न किसी रूपमें पायी जाती है। अपूर्वकरण गुणस्थानमें परिणामोंकी विशुद्धि अधिक हो जाने से अग्रिम गुण स्थानोंमें निधत्ति और निकाचना नामक प्रगाढ कर्मों का अभाव हो जाता है और उपशम या क्षपक किसी भी एक श्रेणीका निर्धारण हो जाने के कारण उपशम करणका भी अभाव हो जाता है । " उपशान्त और क्षीण मोह नामक गुण स्थानों में उपशम, निधत्ति और निकाचना नामक कर्मोंका अभाव तो होता ही है, परन्तु साथ ही मोहनीय कर्मकी प्रकृतिका १. टॉटिया नथमल, स्टडीज़ इन जैन फिलॉसफी, पृ० २६० २. This Classification of Karama corresponds exactly to that of the Hindus 'Agamin, prarabdha and samcita' Shri Niwas, P. T. outlines of Indian Philosophy 1909 P. 62 Banaras. ३. आदिमसत्त्वे तदो सुहुम कसाओति संकमेण विणा । छच्य सजोगिन्ति तदो सत्तं उदयं अजोगित्ति... गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४४२ ४. “ उवसंतं च णिधत्ती णिकाचिदं तं अपुव्वोत्ति" गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४५० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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