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________________ ८६ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त- एक अध्ययन ये पौद्गलिक स्कन्ध ही कर्म संज्ञाको प्राप्त करते हैं । दरिद्र, श्रीमान, सबल, निर्बल आदिकी विषमताएँ भी कर्म के अस्तित्वको सिद्ध करती हैं। कर्म ग्रन्थमें कहा गया है कि विभिन्न हेतुओंसे, जीव कर्म योग्य पुद्गल द्रव्यको आत्म प्रदेशोंसे बाँध लेता है। आत्मसम्बद्ध पुद् गल द्रव्यको ही कर्म कहते हैं । प्रत्येक प्राणीका वर्तमानमें अपना निजी व्यक्तित्व होता है, जो कि दूसरे से भिन्न होता है । यह विभिन्नता पूर्व संचित कर्म के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है, विभिन्नताका यह सिद्धान्त ही कर्मसिद्धान्त कहलाता है । कर्म वह सूक्ष्म पुद्गल है, जिसे प्रत्येक जीवित प्राणी अपनी व्यक्तिगत प्रेरक शक्तियों के कारण आकर्षित करता रहता है, न केवल आकर्षित करता है, अपितु अपने में नीर क्षीरके समान एकीभूत भी कर लेता है। जीवके साथ एकीभूत हो जाने पर ये कर्म जीवकी व्यक्तिगत विशेषताओं में परिवर्तन कर देता है इस प्रकार यह एक प्रकारका संचित शक्तियों का कोश बन जाता है। यह कोश घड़ीमें दी गई चाबीकी तरह होता है, जो प्रतिक्षण स्वयं व्यय होता रहता है, घड़ीकी चाबी की तरह व्यय अवश्य होता है परन्तु कर्म प्रतिक्षण पुनः संग्रहित भी होता रहता है । आर० गांधीने जैन दर्शन मान्य कर्मकी उपरोक्त यथार्थताको स्पष्ट करते हुए कहा है कि कर्मको यद्यपि हम आँखों से देख नहीं सकते, परन्तु कर्म की सत्ता वैसी ही यथार्थ है, जैसे हमारे चारों ओरकी भित्तियाँ यथार्थ हैं ।" यह सिद्धान्त केवल मनुष्यों पर ही घटित नहीं होता अपितु सभी प्रकारके छोटे बड़े जीवित प्राणियों पर भी घटित होता है ।" प्रत्येक वह आत्मा जो मुक्त नहीं हुआ है अर्थात् प्रत्येक संसारी जीव कर्मके इस चक्रसे बन्धा हुआ है । कर्म सिद्धान्तको समझे बिना जैन दर्शनका कोई भी अन्य सिद्धान्त यथार्थ रूपमें स्पष्ट नहीं हो सकता । 1 २. तुलनात्मक परिचय चार्वाक को छोड़कर जैन दर्शनकी भाँति ही न्याय, वैशेषिक, बौद्ध, वेदान्त आदि विभिन्न दर्शनोंमें भी कर्म सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है, तथापि जैनदर्शनकी कर्म विषयक धारणा अन्य दर्शनोंसे सर्वथा पृथक् है । अत: तुलनात्मक १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० २५ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २, पृ० २ ३. कीरई जीएण हेऊहिं जेणं तु भण्णए कम्मं, देवेन्द्रसुरि, कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा १ ४. Karama is according to the Jain Philosophy a reality, as real as the Walls around us are, only the walls, walls we see, but Karma one cannot see. Gandhi Virchand R., 'The Karma Philosophy' P.3. Devchand Lal bhai Pustakoddhar Fund, bombay Ibid p. 3. ५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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