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________________ उपधान-श्रुत ८. भगवान् महावीर [आहार के दोषों को] जानकर स्वयं पाप (आरम्भ समारम्भ) नहीं करते थे, दूसरों से नहीं करवाते थे और अपने लिए करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करते थे। ९. भगवान् ग्राम या नगर में प्रवेश कर गृहस्थ के लिए बने हुए आहार की एषणा करते थे । सुविशुद्ध आहार ग्रहण कर संयत योग से उसका सेवन करते थे। १०. भूख और प्यास से पीड़ित काक आदि पक्षी पान और भोजन की एषणा के लिए चेष्टा करते हैं, उन्हें निरन्तर बैठे हुए देखकर ११. ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को आगे मार्ग में बैठे हुए देखकर १२. उनकी आजीविका का विच्छेद न हो, उनके मन में भय उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर भगवान् धीमे-धीमे चलते थे। वे किसी को त्रास न देते हुए आहार की एषणा करते थे। १३. भोजन व्यंजन-सहित हो या व्यंजन-रहित, ठण्डा भात हो या वासी उड़द, सत्त हो या चने आदि का रूक्ष हो, भोजन प्राप्त हो या न हो-इन सब स्थितियों में भगवान् राग या द्वेष नहीं करते थे। १४. भगवान् ऊकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प से मुक्त थे। १५. भगवान् क्रोध, मान, माया और लोभ को शांत कर, आसक्ति को छोड़, शब्द और रूप में अमच्छित होकर ध्यान करते थे। उन्होंने ज्ञानावरण आदि कर्म से आवृत्त दशा में पराक्रम करते हुए भी एक बार भी प्रमाद नहीं किया।२४ ४ देखें टिप्पण २।१२५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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