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________________ विमोक्ष प्रथम उद्देशक असमनुज्ञ का विमोक्ष १. मैं कहता हूं [ भिक्षु ] समनुज्ञ ( पार्श्वस्थ आदि) और असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोछन न दे, न उन्हें देने के लिए निमन्त्रित करे, न उनके कार्यों में व्यापृत हो; यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। ऐसा मैं कहता हूं ।' २६५ २. [ असमनुज्ञ भिक्षु मुनि से कहे - ] 'तुम निरन्तर ध्यान रखो - [ हमारे मठ में प्रतिदिन ] अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन [ उपलब्ध है ] । तुम्हें ये प्राप्त हों या न हों, तुम भोजन कर चुके हो या न कर चुके हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो, तुम अपने [हम से भिन्न ] धर्म का पालन करते हुए, वहां आओ और जाओ । इस प्रकार असमनुज्ञ भिक्षुओं के अनुरोध को मानकर मुनि के वहां जाने पर वह अशन आदि दे, निमन्त्रित करे और मुनि के कार्यों में व्यापृत हो, तो उसे कुछ भी आदर न दे - उसकी उपेक्षा कर दे । ऐसा मैं कहता हूं । T Jain Education International 2010_03 असम्यग् आचार ३. कुछ भिक्षुओं को आचार - गोचर सम्यग् उपलब्ध नहीं होता । वे [पचन, पाचन आदि ] आरम्भ के अर्थी होते हैं, आरम्भ करने वाले का समर्थन करते हैं, स्वयं प्राणियों का वध करते हैं, करवाते हैं और करने वालों का अनुमोदन करते हैं । ४. अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं । ' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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