SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोक-विजय १०५. [वे] कुछ लोगों के भोजन के लिए [दूध, दही आदि पदार्थों की] सन्निधि और [चीनी, घृत आदि पदार्थो का] सन्निचय करते हैं । १०६. आर्य, आर्यप्रज्ञ, आर्यदर्शी और संयम में तत्पर अनगार यह 'भोजन-काल है', यह देखकर [भिक्षा के लिए जाए] । १०७. वह [अकल्पनीय पदार्थ का] स्वयं ग्रहण न करे, दूसरे से न करवाए और करने वाले का अनुमोदन न करे। १०८. वह सब प्रकार के अशुद्ध भोजन का परित्याग कर शुद्धभोजी रहता हुआ परिव्रजन करे। १०९. वह क्रय और विक्रय में व्याप्त न हो-स्वयं क्रय न करे, दूसरों से न करवाए और करने वाले का अनुमोदन न करे। ११०. वह भिक्षु कालज्ञ (भिक्षा-काल को जाननेवाला), बलज्ञ (भिक्षाटन की शक्ति को जाननेवाला), मात्रज्ञ (ग्राह्य वस्तु की मात्रा को जाननेवाला), क्षेत्रज्ञ (भिक्षाचर्या के उपयुक्त क्षेत्र को जाननेवाला), क्षणज्ञ (अवसर को जाननेवाला), विनयज्ञ (भिक्षाचर्या की आचारसंहिता को जाननेवाला), समयज्ञ (सिद्धान्त को जाननेवाला), भावज्ञ (दाता के प्रिय-अप्रिय भाव को जाननेवाला), परिग्रह पर ममत्व नहीं करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान करने वाला और अप्रतिज्ञ (भोजन के प्रति संकल्प-रहित) हो। १११. वह [राग और द्वेष] दोनों [बंधनों] को छिन्न कर नियमित जीवन जीता ११२. वह वस्त्र, पान, कम्बल, पादपोंछन, अवग्रह (स्थान)और कटासन-[जो गृहस्थ के अपने लिए निर्मित हो], उनकी ही याचना करे । ११३. आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने, भगवान् ने जिसका निर्देश किया है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy