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________________ योग : ध्यान और उसके भेद (३) प्रतिकूलवेदना आर्तध्यान अपने तथा अपने व्यक्ति के शरीर में सोलह महारोगों में से किसी एक रोग से उत्पन्न हो जाने पर, अस्त्र-शस्त्र से घायल हो जाने पर, असह्य वेदना से चित्त के व्याकुल हो जाने पर अथवा किसी भी व्यथा से व्यथित होने पर मोहासक्त जीव खिन्न होकर जो चिन्ता करता है, वह आर्तध्यान का तीसरा भेद प्रतिकूलवेदना आर्तध्यान है ।" (४) निदानानुबन्धी अथवा भोगार्त्तध्यान इस लोक में अथवा परलोक में वासनाजन्य क्षणिक सुखों की कामना करना, भोगों की लालसा करना, संयम, तप एवं ब्रह्मचर्य आदि शुभ क्रियाओं के बदले में नाशवान् पौद्गलिक सुखों को प्राप्त करने के लिए निदान करना अथवा देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के सौन्दर्य आदि गुणों की तथा सुख समृद्धि की याचना स्वरूप निदान करने का जो चिन्तन होता है अर्थात् अपनी साधना के बदले में लौकिक वैभव की कामना करना है, यही चतुर्थ आर्तध्यान निदानानुबन्धी है ।" 1 १. दे० स्थानांगसूत्र, प्र० उ० सूत्र १२, भगवतीसूत्र, श्लोक २५, उद्दे ७; औपपातिकसूत्र तपोधिकार तथा -- ( क ) तहसूलसीस रोगा इवेयणाए विजोगपणिहाणं । 189 तदपओ चिता तपडिआराउलमणस्स || ध्यान श०, गा० ७ ( ख ) कासश्वास भगन्दरोदरज राकुष्ठातिसारज्वरैः । पित्तश्लेष्ममरुत् प्रकोपजनितैः रोगैः शरीरान्तकैः ॥ स्यात्सत्त्वप्रबलैः प्रतिक्षणभवैर्यद्व्याकुलत्वं नृणां, तद्रोगार्त्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वारदुःखाकरम् ॥ ज्ञानार्णव, २५.३२-३३ 1 २. परिजुसि य कामभोग-संयओगसंपत्ते, तस्स अविप्पओग सतिसमणागए यावि भवइ । स्थाना० प्र० उ० सूत्र १२ तथा दे० भगवतीसूत्र शतक २५, उद्दे० ७; औपपातिसूत्र तपोधिकार; तत्त्वार्धसूत्र ६.३४ ३. देविंदचक्कवट्टित्तणाई गुणसिद्धिपत्थणमईयं । अहमं नियाणचितणमण्णाणाणु गयमच्चं तं ॥ ध्यान श०, गा० तथा — भोगाभोगीन्द्रसेव्या स्त्रिभुवनजयिनीरूपसाम्राज्यलक्ष्मी । राज्यं क्षीणारिचक्रं विचित सुखधूलास्यलीलायुवत्यः ॥ ज्ञानार्णव, २५.३४ तथा दे० वही, ३५-३६ For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_03 www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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