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________________ योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना को समीक्षात्मक अध्ययन जैनदर्शन में 'ध्यान शब्द के लिए ज्ञान अथवा 'झाण' शब्द का प्रयोग हुआ है । चित्त को किसी एक लक्ष्य पर मुहूर्त भर के लिए एकाग्र करना ध्यान कहलाता है ।' तत्त्वार्थसूत्र में एकाग्रता से चिन्तन के निरोध करने को ध्यान बतलाया गया है ।" सर्वार्थसिद्धि में निश्चल अग्निशिखा के समान अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है जबकि ध्यानशतक में स्थिर अध्यवसाय ही ध्यान बतलाया गया है ।" तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि परिस्पन्दन स रहित जो एकाग्र चिन्ता का निरोध है, उसी का नाम ध्यान हं ।" यही योग हैं और यही प्रसंख्यान समाधि भी कहलाता है |" ध्यान का निजरा और संवर का कारण भा कहा गया है।" 3 180 वस्तुतः चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्दु पर केन्द्रित करना कठिन है क्योंकि यह किसी भी वस्तु पर अन्त हर्त से अधिक देर तक ठहर नहीं पाता । एक मुहूत ध्यान में व्यतीत हो जाने के बाद चित्त स्थिर नहीं रहता और यदि रह भी जाए तो वह चिन्तन कहलाएगा अथवा आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलाएगा ।" इसे ही यदि दूसरे शब्दों में कहें तो ध्यान अथवा समाधि वह है, जिसमें संसार बन्धनों को तोलने वाले वाक्यों के अर्थों का चिन्तन किया जाता है अर्थात् समस्त कर्ममल नष्ट होन पर केवल वाक्यों का आलम्बन लेकर आत्मस्वरूप में आव० नि० गा० १४६३ १. अन्तो मुहुत्तकालं चित्तस्सेकग्गया हवइ झानं २. एकाग्र चिन्ता निरोधो ध्यानम् । तत्त्वार्थ सूत्र ६.२७ तथा तुलना कीजिए - एकाग्रेण निरोधो यः चित्तस्यैकत्र वस्तुनि तद्ध्यानं । महापु०, २१.८ ३. ज्ञानमेवापरिस्पन्दनाग्निशिखावदनभासमानं ध्यानमिति । सर्वा० सि०, पृ० ४५५ ४. जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । ध्यान श०, गा० २ ५. एकाग्रचिन्तानिरोधो य परिस्पन्देन वर्जितः तदुद्ध्यानम् । तत्त्वानु०, गा० ५६ तदस्य योगिनो योगश्चित्ते काग्र निरोधनम् । ६. प्रसंख्यानसमाधिः स्याद् ध्यानं स्वेष्टफलप्रदम् । वही, गा० ६१ ७. तद्ध्यानं निर्जराहेतुः संवरस्य च कारणम् । वही, गा० ५६ ८. आमुहूर्तात् । तत्त्वार्थसूत्र ६.२८, तथा दे० ध्यान शतक, गा० ३ ६. मुर्हतात् परितश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् । संतु स्याद्दीर्वापि ध्यानसन्ततिः । यो० शा० ४.११६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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