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________________ 162 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन की फलश्रुति है। (६) लोकभावना ... सभी प्राणी लोक में रहते हैं। साधक भी अशुद्ध अवस्था में लोक में रहता है और पूर्णशद्ध अवस्था में भी लोक में ही रहेगा। अतः आत्मा का आवास एवं विकास और आधार लोक ही है। इसलिए लोकभावना में लोक का स्वरूप, आकार-प्रकार उसकी रचना के मूल तत्व क्या है ? यहां साधक उसके नित्यानित्यत्व आदि का चिन्तन करता है। दूसरे, लोक के स्वरूप का चिन्तन वही करता है जिसे लोक परलोक पर विश्वास होता है। जो कर्मफल को मानता है। इसलिए भगवान महावीर ने कहा है-आध्यात्मिक विकास चाहने वाला आत्मा एवं लोक का अपलाप नहीं करता। लोकस्वरूप का चिन्तन हमें आत्माभिमुख करता है। इसलिए सूत्रकताँग में कहा है कि यह मत सोचो कि लोकालोक नहीं है किन्तु विश्वास करो कि लोकालोक है, जीवाजीव हैं।' लोक का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि धर्माधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव, ये छ. द्रव्य जहां पाए जाते हैं, वही लोक है धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गलजन्तवो। एसं लोगोत्ति पण्णत्तो जिर्णोहिं वरदंसिहि ॥ यह लोक अनादि है, स्वयं सिद्ध है, इसका कोई कर्ता नहीं और यह जीवादि से भरा है । यह अविनाशी है। यह आकाश में स्थित है ।। लोक का कोई भी ऐसा भाग नहीं है जहां जीवादि षड्द्रव्य न हो क्योंकि १. णत्थि लोए अलोए वा णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि लोए अलोए वा एवं सन्नं निवेसए ॥ सूत्रकृ० २.५.१२ २. उत्तराध्ययनसूत्र, २८.७ ३. अनादिनिधनः सोऽयं स्वयं सिद्धोऽप्यनश्वरः । अनीश्वरोऽपि जीवादिपदार्थः संभूतो भृशम् ॥ ज्ञाना०सर्ग २ लोकभावना श्लोक ४ ४. स्वयं सिद्धो निराधारो गगने किन्त्ववस्थितः । योगशा० ४.१०६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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