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________________ परिशिष्टम्-२०, नवतत्त्वसंग्रहगतध्यानस्वरूपम् २१५ आगम पठन करी गुरवैन रिदेव धरी वीतराग आन करी स्वयंबोध भारी है चार ही प्रकार करी मिथ्या भ्रम जार जरी सतका सरूप धरी भय ब्रह्मचारी है आतम आराम ठाम सुमतिको करी वाम भयो मन सिद्ध काम फूलनकी वारी है १ इति 'लिंग'द्वारम् । अथ 'फल'द्वारकीरति प्रशंसा दान विने श्रुत सील मान धरम रतन जिन तिनही को दीयो है सुरगमे इंद भूप थान ही विमानरूप अमर समरसुख रंभा चंभा कीयो है नर केरी जो न पाय सुख सहु मिले धाय अंत ही विहाय सब तोषरस पीयो है आतम अनंत बल अध धरि तोर दल मोखमे अचल फल सदा काल जीयो है १ इति फलम् । इति धर्मध्यानं संपूर्णम् ।। ३ ।। अथ शुक्लध्यानं लिख्यते-अथ 'आलंबन' कथन, दोहराखंति आर्जव मार्दव, मुक्ति आलंबन मान; सुकल सौधके चरनको, एही भये सोपान १ इति आलंबनम् । अथ ध्यानक्रमस्वरूप, सवईया इकतीसात्रिभुवन फस्यो मन क्रम सो परमानु विषे रोक करी धर्यो मन भये पीछे केवली जैसे गारुडिक तन विसकू एकत्र करे डंक मुख आन धरे फेर भूम ठेवली ध्यानरूप वल भरी आगम मंतर करी जिन वैद अनु थकी फारी मनने वली ऐसे मन रोधनकी रीत वीतराग देव करे धरे आतम अनंत भूप जे वली १ जैसे आगई धनके घट ते घटत जात स्तोक एध दूर कीये छार होय परी है जैसे घरी कुंड जर घर नार छेर कर सने सने छीज तनुं मन दोर हरी है जैसे तत्ततवे धर्यो उदग जर तपस्यो तैसें विभु केवलीकी मनगति जरी है ऐसें वच तन दोय रोधके अजोगी भये नाम है 'सेलेस' तब ए जनही करी है २ अथ शुक्ल ध्यान के च्यार भेद कथन, सवईयाएक हि दरव परमानु आदि चित धरी उतपात व्यय ध्रुवस्थिति भंग करे है पुव्व ग्यान अनुसार पर जाय नानाकार नय विसतार सात सात सात सत धरे है अरथ विजन जोग सविचार राग विन भंग के तरंग सब मन बीज भरे है प्रथम शुक्ल नाम रमत आतमराम पृथग वितर्क आम सविचार परे है १ इति प्रथम । एक हि दरवमांजि उतपात व्यय ध्रुव भंग नय परि जाय एकथिर भयो है Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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