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________________ ऐतिहासिक सार-भाग द्रव्य लिया था, वह सब उसने वापिस दिया । एक दिन बादशाह खुश होकर बोला कि, "हे मित्रवर ! मैं तुम्हारा क्या इष्ट कर सकू ? मेरा दिल खुश करने के लिये मेरे राज्य में से कोई देश इत्यादि का स्वीकार करो ।' साह ने कहा, "आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है । मुझे कुछ भी वस्तु नहीं चाहिए । मैं केवल एक बात चाहता हूं कि, शत्रुजय पर्वत पर मेरी कुलदेवी की स्थापना हों । उसके लिये मैंने कई कठिन अभिग्रह कर रक्खे हैं । यह बात मैंने पहले भी आपसे चित्रकूट में, आपके विदेश जाते समय कही थी और जिसके करने का आपने वचन भी प्रदान किया था । उस वचन के पूर्ण करने का अब समय आ गया है, इसलिये वैसा करने की आज्ञा है ।" यह सुनकर बादशाह बोला कि, "हे साह ! तुम्हारी जो इच्छा हो वह निःशंक होकर पूर्ण करो । मैं तुम्हें अपना यह शासनपत्र (फरमान) देता हूं, जिससे कोई भी मनुष्य तुम्हारे कार्य में प्रतिबंध नहीं कर सकेगा।" यह कहकर बादशाह ने एक शाही फरमान लिख दिया, जिसे लेकर, अच्छे मुहूर्त में कर्मासाह ने वहां (चांपानेर) से शीघ्र ही प्रयाण किया । आकाश को शब्दमय कर देनेवाले वाजिंत्रो के प्रचंड घोषपूर्वक साह ने शहर से निर्गमन किया । चलते समय सुवासिनी स्त्रियों ने मंगल कृत्य कर उसके सौभाग्य को बधाया । बहार निकलते समय बहुत अच्छे शकुन हुए, जिन्हें देखकर कर्मासाह के आनंद का वेग बढने लगा । रास्ते में स्थान स्थान पर सेंकडों बंदिजनों ने साह का यशोगान किया, जिसके बदले में उसने, उनके प्रति धन की धारा बरसाई । हाथी, घोडे और रथ पर चढे हुए अनेक संघजनों से परिवृत होकर रथारूढ कर्मासाह क्रमशः शत्रुजय की ओर आगे बढ़ने लगा। मार्ग में स्थान स्थान पर जितने जैन चैत्य आते थे, उन प्रत्येक में स्नात्र महोत्सव और ध्वजारोपण करता हुआ, जिनते उपाश्रयों में जैन Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002553
Book TitleShatrunjayatirthoddharprabandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2009
Total Pages114
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size6 MB
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