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________________ ४६ ऐतिहासिक सार-भाग को तीर्थोद्धार विषयक प्रयत्न में लगे रहने का वारंवार उपदेश कर उपाध्यायजी वहां से फिर अन्यत्र विहार कर गये । कुछ वर्ष बाद तोलासाह अपने धर्मगुरु श्रीधर्मरत्नसूरि का स्मरण करता हुआ, न्यायोपार्जित धन को पुण्य क्षेत्रों में वितीर्ण करता हुआ और सर्व प्रकार के पापों का पश्चात्तापपूर्वक प्रत्याख्यान करता हुआ, स्वर्ग के सुखों का अनुभव करने के लिये इस संसार को छोड गया । पिता के विरह से सब पुत्र शोकग्रस्त हुए, लेकिन संसार के अचल नियम का स्मरण कर समय के जाने पर शोकमुक्त होकर अपने अपने व्यावहारिक कर्तव्यों का यथेष्ट पालन करने लगे । छोटा पुत्र कर्मासाह कपडे का व्यापार करता था, जिसमें वह दिन प्रतिदिन उन्नति पाता हुआ सज्जनों में अग्रेसर गिना जाने लगा । वह दैवसिक और रात्रिक दोनों संध्याओं में निरंतर प्रतिक्रमण करता था । त्रिकाल भगवत्पूजा और पर्व के दिनों में पौषध वगैरह भी नियमित करता रहता था । धर्म और नीति के प्रभाव से थोडे ही वर्षों में उसने क्रोडों रुपये पैदा किये । हजारों वणिक पुत्रों को व्यवहार कार्य में लगाकर उन्हें सुखी कुटुंबवाले बनाये । शीलवती और रूपवती ऐसी अपनी दोनों* प्रियाओं के साथ कौटुंबिक सुख का आनंदप्रद अनुभव करता हुआ, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और स्वजनादि के बीच में साक्षात इन्द्र की तरह वह साह शोभने लगा । निरन्तर याचकजनों की कल्पवृक्ष की समान इच्छित दान दे देकर दुखियों के दु:खों का नाश करने लगा । इस तरह सब प्रकार का पुरुषार्थ साधकर बाल्यावस्था में जिस प्रतिज्ञा का स्वीकार किया था, उसके पूर्ण करने का सतत प्रयत्न करता हुआ कर्मासाह जैन धर्म और जिनदेव की सदैव सेवा-उपासना करने लगा । ___* लावण्यसमय वाली प्रशस्ति में कर्मासाह के कुटुंब के कुछ मनुष्यों के नाम दिये हुए हैं, जिसमें इन दोनों पतिव्रताओं के नाम भी सम्मिलित हैं । पहली स्त्री का नाम कपूरदेवी और दूसरी का नाम कमलादेवी था । कमलादेवी से एक पुत्र हुआ था, जिसका नाम भीषजी था । पुत्र के सिवा ४ पुत्रीयाँ भी थी । सबका नामोल्लेख वंशवृक्ष में किया गया है । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002553
Book TitleShatrunjayatirthoddharprabandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2009
Total Pages114
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size6 MB
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