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________________ शत्रुंजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का ऐतिहासिक सार - भाग वंशादि वर्णन | (प्रथम उल्लास ) इस प्रबन्ध के प्रारंभ में, प्रबन्धकार ने प्रथम काव्य में, शत्रुंजयमंडन श्री ऋषभदेव भगवान की प्रार्थना की है । दूसरे पद्य में भगवान के प्रथम गणधर श्रीपुंडरीकस्वामी की, जिनके कारण इस पर्वत का 'पुंडरीक' नाम प्रसिद्ध हुआ है, स्तवना की गई है । तीसरे काव्य में उल्लेख है कि-इस सिद्धगिरि पर, पूर्वकाल में भरत - आदि महापुरुषों ने, तीर्थंकरादि महात्माओं के उपदेश से अनेक उद्धार कार्य किये हैं, इसलिये इसकी उपासना करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है यह जानकर, असंख्य श्रद्धालुओं ने संघ निकाल निकाल कर इसकी यात्रायें की हैं । चौथे, पाँचवें और छवें काव्य में भरतादिक जिन जिन उद्धारकों ने ऋषभादिक जिन जिन आप्तपुरुषों के कथन से (जिनकी सूची 'उपोद्घात' में दी गई है) इसके उद्धार किये हैं, उनका केवल नाम - निर्देश किया गया है और * साधु श्रीकर्मा के किये गये वर्तमान महान् उद्धार का मधुर वर्णन करने की प्रतिज्ञा कर श्रोताओं को सावधान मन से सुनने की विज्ञप्ति की गई है । सातवें पद्य से प्रबन्ध का प्रारंभ होता है । प्रारंभ, जिनके उपदेश से कर्मासाह ने यह उद्धारकार्य किया है, उन आचार्यवर्य के वृत्तान्त से किया गया है । आलंकारिक वर्णन को छोडकर ( जो कि बहुत * 'साधु' शब्द से यहां पर यति-श्रमण का अभिप्राय नहीं है । संस्कृत में 'साधु' का पर्याय श्रेष्ठ - सुपुरुष है । पूर्वकाल में जो अच्छे धर्मी और धनी गृहस्थ होते थे, वे 'साधु' ही का प्राकृतरूप 'साहु' है, जो अपभ्रंश होकर साह के रूप में वर्तमान में विद्यमान है तथा अब भी जो महाजनों को 'साहुकार' कहते हैं, वह संस्कृत 'साधुकार' (अच्छा कार्य करनेवाला) का प्राकृतिक रूप है । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002553
Book TitleShatrunjayatirthoddharprabandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2009
Total Pages114
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size6 MB
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