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________________ उपोद्घात खरतरगच्छ के जिनप्रभसूरि । शत्रुंजय - माहात्म्य में जिन बातों का विस्तृत वर्णन है, इन कल्पों में उन सब का संक्षिप्त सूचन मात्र है । इन कल्पों में यह भी लिखा है कि इस तीर्थ पर्वत पर अनेक प्रकार के रत्नों की खानें हैं, नाना तरह की चित्र विचित्र जडीबुट्टियें हैं, कई रसकुंपिकायें छीपी हुई है और गुप्त गुहाओं में, पूर्व काल के उद्धारकों की करवाई हुई रत्नमय तथा सुवर्णमय जिनप्रतिमायें, देवताओं द्वारा सदा पूजित रहती हैं । १० प्रभावक आचार्यो द्वारा शत्रुंजय का इस प्रकार, अलौकिक और आश्चर्यकारक माहात्म्य कहे जाने के कारण जैन प्रजा की इस तीर्थ पर सेंकडों वर्षों से अनुपम आस्था रही हुई है । यही कारण है कि, अन्यान्य सेंकडों बडे बडे तीर्थो का नाम जैनप्रजा जब सर्वथा भूल गई है तब, अनेकानेक विपत्तियों के उपस्थित होने पर भी आज तक इस तीर्थ का वैसा ही गौरव बना हुआ है। परमार्हत महाराज कुमारपाल के समय, कि जब जैनप्रजा भारतवर्ष के प्रजागण में सर्वोच्च स्थान पर विराजित थी तब, जैसा इस तीर्थ पर द्रव्यव्यय कर रही थी वैसा ही आज भी कर रही है। मतलब यह कि देश पर अनेक विप्लव, अनेक अत्याचार, अनेक कष्ट और आपदायें आ जाने पर भी, यह तीर्थ जो वैसा का वैसा ही तैयार होता रहा है इसका कारण केवल जैनप्रजा की हार्दिक भक्ति ही है। जैनों ने इस तीर्थ पर, जितना द्रव्य खर्च किया है उतना संसार के शायद ही किसी तीर्थ पर, किसी प्रजा ने किया होगा। अलेक्सान्डर फार्बस साहब ने, रासमाला में, यथार्थ ही लिखा है कि- "हिन्दुस्तान में, चारों तरफ से - सिंधु नदी से लेकर पवित्र गंगानदी तक और हिमालय के हिम-मुकुटधारी शिखरों से तो उसकी कन्याकुमारी, जो रुद्र के लिये अर्द्धांगना तया सर्जित हुई है, उसके भद्रासन पर्यंत के प्रदेश में एक भी नगर ऐसा न होगा जहाँ से एक या दूसरी बार, शत्रुंजय पर्वत के शंग को शोभित करनेवाले मंदिरों को द्रव्य की विपुल भेंटे न आई हों।" (RAS-MALA VOL, I.Page 6) Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002553
Book TitleShatrunjayatirthoddharprabandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2009
Total Pages114
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size6 MB
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