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________________ आचारांगभाष्यम् वृत्तावपि'-सचेतनोऽग्निर्यथा योग्याहारेण वृद्धि- वृत्ति में भी कहा गया है कि अग्नि सचेतन है, क्योंकि उसमें दर्शनात्, तदभावे च तदभावदर्शनात् । उचित आहार-इंधन से वृद्धि और इंधन के अभाव में हानि देखी जाती है। ___ आधुनिका अपि मन्यन्ते-प्राणवायुमगृहीत्वा आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि प्राणवायु नाग्नेरुद्दीपनं जायते। (ऑक्सीजन) के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। आतापक-उद्योतकनामकर्मणोरुदयेनासौ शेषजीव- नामकर्म की आतापक तथा उद्योतक प्रकृतियों के उदय मे शेष कायेभ्यो विशिष्टो दृश्यते । जीवकायों की अपेक्षा इसमें विशेषता दृष्टिगोचर होती है। शेषं पूर्ववद् (सूत्र ३९) द्रष्टव्यम्। शेष पूर्वसूत्र ३९ की भांति । ६७. जे दोहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे । जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे । सं०-यः दीर्घलोकशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः, सोऽशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । यः अशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः, स दीर्घलोकशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । जो दीर्घलोक के शस्त्र को जानता है, वह संयम को जानता है। जो संयम को जानता है, वह दीर्घलोक के शस्त्र को जानता है। भाध्यम ६७--दीर्घलोकः-वनस्पतिः । दीर्घशरीरत्वाद दीर्घलोक का अर्थ है--बनस्पति जगत । बनस्पति जगत् को दीर्घ लोक ा . द्रव्यपरिमाणेनानन्तत्वाद, दीर्घकायस्थितिकत्वाच्च 'दीर्घलोक' कहने के तीन कारण हैं - (१) शरीर की दीर्घता (२) द्रव्यवनस्पतिः 'दीर्घलोक' इतिपदेनाभिहितः। चूणौ वृत्तौ परिमाण को अनन्तता तथा (३) कायस्थिति की दीर्घता (उसी काय में चैषोऽर्थो लभ्यते, किन्तु दशवैकालिकसन्दर्भ दीर्घलोक बार-बार जन्म-मरण करना)। यही अर्थ चणि और वृत्ति में मिलता इति प्रथिव्यादिप्राणिजगत् । अग्निस्तस्य शस्त्र विद्यते। है, किन्तु दशकालिक सूत्र के संदर्भ में 'दीर्घलोक' का अर्थ है-पृथ्वी अस्मिन विषये यः क्षेत्रज्ञो-ज्ञानी विद्यते, स एव आदि प्राणी जगत् । अग्नि उसका शस्त्र है। इस विषय में जो क्षेत्रज्ञ अशस्त्रस्य-संयमस्य विषयेऽस्ति ज्ञानी । स एवाग्निकाय- अर्थात् ज्ञानी है, वही अशस्त्र--संयम के विषय में ज्ञानी है। इसका जीवहिंसातो विरमतीत्यस्य तात्पर्यम् । इदमेवमपि वक्तुं तात्पर्य यह है कि वही ज्ञानी व्यक्ति अग्निकाय की जीवहिंसा से विरत शक्यम् -योऽशस्त्रविषये ज्ञानी भवति, स एव दीर्घलोक- होता है। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है जो अशस्त्र के शस्त्रविषये ज्ञानी भवति । विषय में ज्ञानी होता है वही दीर्घलोक के शस्त्र के विषय में ज्ञानी होता है। ६८. वीरेहिं एवं अभिभूय दिळं, संजतेहिं सया जतेहि सया अप्पमतेहिं । सं०-वीरः एतद अभिभूय दृष्टं, संयतैः सदा यतैः सदा अप्रमत्तः । उन मुनियों ने ज्ञान और दर्शन के आवरण का विलय कर इस अग्निकायिक जीवों के अस्तित्व को देखा है जो वीर हैं, जो संयमी हैं, जो सदा यत हैं और जो सदा अप्रमत्त हैं। भाष्यम् ६८–वीरैरभिभूय-शुक्लध्यानेन ज्ञान- वीरों-तीर्थकरों ने शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञान और दर्शन के दर्शनयोरावरणमपाकृत्य अग्निकायिकजीवविषये प्रति- आवरण को दूर कर अग्निकायिक जीवों के विषय में किए जाने वाले पाद्यमानमेतत् साक्षात्कृतम् । अत्र किमभिभूय इति स्पष्ट- इस प्रतिपादन का साक्षात्कार किया है। सूत्र में यह स्पष्ट निर्देश नहीं १. आचारांग वृत्ति, पत्र ४५ । चत्तारि घाइकम्माणि अभिभूत, परीसहा उवसग्गे य २. दसवे आलियं, ६।३४; भूयाणमेसमाधाओ हव्ववाहो न संसओ। अभिभूय, अहवा जहा आइच्चो गहणखत्तताराणं प्रभं ३. प्रस्तुतसूत्रस्य रचना गतप्रत्यागतलक्षणा विद्यते । अभिभूय भाति तथा छउमत्थियनाणाणं अभिभूय सदेवमणु४. अभिभूय - सूत्रकृताङ्ग 'अभिभूय जाणी' इति पाठोऽपि यासुराए परिसाए मज्झयारे परितिथिए अभिभूय ....." प्रस्तुतार्थ समर्थयति (सूत्रकृतांग १।६।५)। (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९,३०)। प्रस्तुतागमेऽपि 'अभिभूय अदक्खू' इति पाठो दृश्यते पातञ्जलयोगदर्शनानुसारेण व्युत्थानसंस्काराणामभिभवे सति (५।१११) । तत्रापि एषा एव भावना। निरोधसंस्काराणां प्रादुर्भावो जायते । (पातञ्जलयोगदर्शन, चूणिकृता 'अभिभूय' पदस्य अनेके अर्थाः कृता: विभूतिपाद, सूत्र ८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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