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________________ ५२ आजीवक - हम अपने सिद्धांत के अनुसार पीने के लिए जल ले सकते हैं । बौद्ध- हम अपने सिद्धांत के अनुसार पीने और नहाने (विभूषा) भाष्यम् १९ - यद्यपि आजीवकादितीथिका अष्कायिकजीवानामस्तित्वं न स्वीकृतवन्तः तथापि तेषां जलारम्भ विषये विभिन्ना मर्यादा आसन् । प्रस्तुतसूत्रे तासामस्ति निरूपणम् । आजीवकानां शैवानाञ्चाभ्युपगमोऽयं वयं केवलं पातुमेव जलं गृह्णीमः नान्यप्रयोजनाय । ६०. पुढो सहि विउति । अत्र बौद्ध भिक्षु पीने के लिए और स्नान करने के लिए भी पानी बौद्धाः पातुमपि स्नातुमपि च तदाददुः । विभूषापदेन स्नानं हस्त-पाद-मुख वस्त्रादिप्रक्षालनं च लेते थे यहां 'विभूषा' का अर्थ है-स्नान करना, हाथ-मुंह और ग्रहीतव्यम् । वस्त्र आदि का प्रक्षालन करना । भाष्यम् ६० पूर्वोक्तास्तीथिका जलस्य जीवत्वं नाभ्युपगतवन्तः तेन तेषां सचित्तजलस्योपभोगे नादत्ता दानस्य सिद्धान्त: सम्मतः । न च ते सचित्तजलस्य हिसातो विरताः । इमां स्थिति लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारः प्रवक्तिते तीथिका नानाप्रकारैः शस्त्रे जलकायिक जीवानां विकुट्टनं प्राणवियोजनं कुर्वन्ति । अथवेदं व्याख्यातव्यमेवं ते तीथिका पृथक् पृथक् स्वकीयशास्त्राणां सम्मति प्रदर्श्य जलकायिकजीवानां हिंसायां प्रवर्तन्ते । [सं०] पृथ शस्त्रे विट्टयन्ति । वे नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकायिक जीवों की हिंसा करते हैं । दोनों के लिए जल ले सकते हैं। भाष्यम् ६१ - यद्यपि ते तीर्थिका जलस्य परिमितारम्भस्य स्वशास्त्रसम्मतां घोषणां कुर्वन्ति तथापि ते न जलकायिकजीवानां निकरणाय हिंसां तिरस्कर्तुं ततो विरता भवितं समर्थाः । अत्र 'निकरण' पदस्य तिरस्कार:, निर्गमनं निस्तरणं, हेतुः क्रियाया अभाव: इत्यादीनि अभिधेयानि सन्ति । " यद्यपि आजीवक आदि तीविक (दार्शनिक कायिक जीवों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे, फिर भी उनकी जन को काम में लेने के विषय में विभिन्न मर्यादाएं थीं। प्रस्तुत ग्रुप में उनकी कुछेक मर्यादाओं का निरूपण है । आजीवक ओर शैवों का यह मत है हम केवल पीने के लिए जल लेते हैं, दूसरे प्रयोजन के लिए नहीं। ६१. एस्थवि तेसि णो णिकरणाए । सं० – अत्रापि तेषां नो निकरणाय । सिद्धांत का प्रामाण्य देकर जलकायिक जीवों की हिंसा करने वाले साधु हिंसा से सर्वथा विरत नहीं हो पाते । Jain Education International पूर्वोक्त दार्शनिकों ने जल के जीवत्व को स्वीकार नहीं किया, इसलिए उनके सचित जल के उपभोग में अदत्तादान का सिद्धांत सम्मत नहीं था । वे सचित्त जल की हिंसा से विरत नहीं थे । इस स्थिति को परिलक्षित कर मूत्रकार कहते हैं वे तीर्थिक नाना प्रकार के जाति जीवों का प्राण-नियोजन करते है अथवा इसकी व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है वे तीर्थिक अपने भिन्नभिन्न शास्त्रों की सम्मति प्रदर्शित कर जलकाधिक जीवों की हिंसा में 1 प्रवृत्त होते हैं। आचारांगभाष्यम् यद्यपि वे तीर्थिक अपने शास्त्रों द्वारा सम्मत जल के परिमित आरम्भ - हिंसा की घोषणा करते हैं, फिर भी वे जलकायिक जीवों का निकरण - हिंसा का परिहार करने, उससे विरत होने में समर्थ नहीं होते । तिरस्कार, निर्वाचन, निस्तरण हेतु किया का अभाव आदि 'निकरण' शब्द के पर्यायवाची हैं । ६२. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति । सं० - अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरंभा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो जलकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ करता है, वह इन आरंभों तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता । १. (क) अंगसुताणि २, भगवई, ७।१५० - १५४, वृत्ति पत्र, ३१२ । (ख) तुलना, आयारो २।१५३ । , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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