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________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० १. सूत्र ६,१० २६ हारेण अस्य सम्बन्धोऽस्ति । अस्य तात्पर्यम्-जीवितस्य की परिपुष्टि के लिए प्राणी हिंसात्मक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं। परिबंहणार्थं प्राणिनो हिंसाकर्मसु प्रवर्तन्ते । लिपिदोषेण लिपिदोष के कारण 'हकार' के स्थान पर 'दकार' हो गया, जिससे हकार-दकारयोविपर्ययो जातः, तेनार्थपरिवर्तनमपि अर्थ-परिवर्तन भी घटित हुआ। यदि आलोच्यमान पाठ को स्वीकार जातम् । यदि समालोच्यमानं पाठं स्वीकुर्मः तदा किया जाए तो जिजीविषा स्वतन्त्र हेतु नहीं रहेगा, किन्तु 'जीवन का जिजीविषा स्वतन्त्रो हेतुर्न स्यात्, किन्तु जीवितस्य परिहण'-यह एक ही हेतु होगा । चूर्णिकार ने जीवन के लिए तथा परिव्हणमिति एक एव हेतुर्भवेत् । चणिकृता 'जीवियस्य' 'परिबहण'-इन दो हेतुओं का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया है। तथा 'परिबह्ण' मितिहेतुद्वयं पार्थक्येन प्रतिपादितमस्ति । ३. माननम् -मानन मितिपदस्य दिशाद्वयेऽर्थो ३. मानन–'मानन' पद का अर्थ दो दृष्टियों से अन्वेषणीय है। गवेषणीयः । यः सम्मानं करोति तदर्थं हिंसाकर्मणि जो सम्मान करता है वह व्यक्ति सम्मान-संपादित करने के लिए प्रवृत्तिः, यश्च सम्मानं न करोति तं प्रतीत्य पुरुषः हिंसात्मक प्रवृत्ति करता है। जो सम्मान नहीं करता, उस व्यक्ति को हिंसाकर्मणि प्रवर्तते । यथा कश्चिदीश्वरः स्वकीयप्रजायाः लक्ष्य कर असम्मानित व्यक्ति हिंसात्मक प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है। सकाशे अभ्युत्थानादीनि न लभते, तदानीं तस्या बन्ध- जैसे- यदि प्रजा अपने राजा का अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मान वध-सर्वस्वहरणादीनि करोति। नहीं करती है तो राजा उस प्रजा का वध, बंधन, सर्वस्व-अपहरण आदि करता है । ये सारी हिंसात्मक प्रवृत्तियां हैं । ४. पूजनम् --यथा सम्मानार्थं हिंसाकर्मप्रवृत्तिरुद्दिष्टा ४. पूजन-जैसे सम्मान के लिए हिंसात्मक प्रवृत्ति बतलाई गई तथा पूजार्थमपि हिंसाकर्मणि प्रवृत्तिर्जायते । अभ्युत्था- है वैसे ही पूजा के निमित्त भी हिंसात्मक प्रवृत्ति होती है। मानन और नादिकरणं माननं तथा अर्चनातिलकादिकरण पूजन- पूजन-इन दोनों में अन्तर है। अभ्युत्थान आदि करना मानन तथा मित्यनयोर्भेदः । अर्चना करना, तिलक आदि करना पूजन है। ___५. जाति-मरणे-जातिशब्दस्य अर्थद्वयं सम्भावित- ५. जाति-मरण-'जाति' शब्द के दो अर्थ सम्भव हैं। जाति मस्ति। सादृश्यलक्षणा जातिर्जन्म वा। अत्र जन्मैव का एक अर्थ है-एक समुदाय, जो समानता के आधार पर बनता है। प्रासङ्गिक विद्यते । मरणम्-मृत्युः । जन्ममरणनिमित्तः जाति का लक्षण है-सदृशता । जाति का दूसरा अर्थ है-जन्म । कर्मसमारम्भः स्पष्टं दृश्यते लोके । यहां जन्म ही प्रासङ्गिक है । मरण का अर्थ है-मृत्यु । संसार में जन्म मरण के निमित्त होने वाला कर्म-समारम्भ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । ६. मोचनम्-मोचनम्-मुक्तिः स्वतन्त्रता वा । बन्ध- ६. मोचन-मोचन का अर्थ है-मुक्ति या स्वतन्त्रता। मनुष्य मोक्षाय स्वतन्त्रताय वा मनुष्यः नानाविधान् कर्मसमा- बन्धन से मुक्त होने के लिए अथवा स्वतन्त्रता के लिए नाना प्रकार के रम्भान करोतीत्यनेकासू परम्परासु विदितमेव । 'जाई- कर्म-समारम्भ करता है, यह अनेक परम्पराओं से ज्ञात होता है। मरण-मोयणाए' इतिपाठस्य संयुक्तोऽपि अर्थ: कर्त्त 'जाईमरणमोयणाए'--इस पाठ का संयुक्त अर्थ भी किया जा सकता शक्यः । केचिद् हिंसावादिनो जन्म-मरण-मुक्तयेऽपि है-कुछ हिंसावादी जन्म-मरण से मुक्ति पाने के लिए भी हिंसा-कर्म हिंसाकर्मणि प्रवृत्ता दृश्यन्ते । में प्रवृत्त देखे जाते हैं। __अत्र चणिसम्मतः पाठः 'भोयणाए' अधि- इस संदर्भ में चूणि द्वारा स्वीकृत पाठ 'भोयणाए' अधिक संगत संगच्छते। भोजनार्थं मनुष्याः कृष्यादिकर्मषु प्रवर्तमाना है। मनुष्य भोजन के लिए कृषि आदि कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। मनोभवन्ति । आहारान्वेषणं एका मौलिकी मनोवृत्तिरिति वैज्ञानिकों ने भी आहार की गवेषणा को एक मौलिक मनोवृत्ति माना सम्मतमस्ति मनोवैज्ञानिकानामपि । फ्रायडमहोदयेन है। फ्रायड ने दो ही मनोवृत्तियां स्वीकार की हैं—जीवन और मृत्यु । द्व एव मनोवृत्ती सम्मते-जीवनं मृत्युश्च ।' उत्तर- उत्तरवर्ती मनोवैज्ञानिकों ने मनोवृत्तियों का विस्तार किया है। 1. McDougall, W : Introduction to Social Psycho___logy, London, Metheun & co. 2 Freud-"The erotic instincts. which are always trying to collect living substance in to ever larger unities and the death instincts which act against that tendency and try to bring living matter back into an inorganic condition. The co-operation and opposition of these two forces produce the phenomena of life to which death puts an end." (Great Books of the western world. Vol-54 Editor-in-Chief-Robert Maynard Hutching, PP-851) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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