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________________ २४ आचारांगभाष्यम् प्रज्ञापकदिशाः सन्ति विवक्षिता इति नियुक्तिकारः।' नियुक्तिकार के अनुसार यहां प्रज्ञापक दिशाएं विवक्षित हैं । किन्तु क्षेत्र किन्तु क्षेत्रदिशि चापि जीवा विद्यन्ते । तत्र चतसृषु दिशा में भी जीव होते हैं। चार दिशाओं में जीव, जीव-देश और दिक्षु सन्ति जीवाः, जीवदेशाः, जीवप्रदेशाश्च । जीव-प्रदेश होते हैं । ऊंची और नीची-इन दो दिशाओं में तथा ऊवधिःदिग्द्वये विदिक्षु च नो सन्ति जीवाः, केवलं विदिशाओं में जीव नहीं होते, केवल जीव-देश और जीव-प्रदेश होते जीवदेशाः जीवप्रदेशाश्च इति भगवती।' अनुदिशाः- हैं-यह भगवती सूत्र का कथन है । अनुदिशा का अर्थ है-विदिशा। विदिशाः। 'अन्यतरस्या' इतिपदेन क्षेत्रादिदिशः 'अन्यतरस्या' इस पद से क्षेत्रादि दिशाएं सूचित होती हैं। सूचिताः सन्ति। ५. से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियाबाई । सं०--स आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी, क्रियावादी। जो अनुसंचरण को जान लेता है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। भाष्यम ५-आगमयुगेऽपि अनेके वादा: प्रचलिता आगम युग में भी अनेक वाद प्रचलित थे। प्रस्तुत आगम के आसन । प्रस्तुतागमस्य अष्टमाध्ययने तेषां उल्लेखोऽस्ति। आठवें अध्ययन में उनका उल्लेख है। कुछ आत्मवादी थे और कुछ केचिदात्मवादिन आसन, केचन चानात्मवादिनः । तर्केण अनात्मवादी। दोनों ने अपने-अपने अभिप्रेत पक्ष को तर्क के बल पर स्वाभिप्रेतं पक्षं ते स्थापयाञ्चक्रुः । भगवता महावीरेण स्थापित किया था । भगवान् महावीर ने अनुभव अथवा साक्षात्कार को अनुभवः साक्षात्कारो वा मुख्यत्वेन प्रतिष्ठापितः। प्रधानता दी। वे जानते थे कि तर्क के द्वारा स्थापित पक्ष प्रतितर्क से इतिविदितमासीत् तस्य यत् तर्केण स्थापितः पक्षः उत्थापित भी होता है, किन्तु साक्षात्कार किया हुआ तत्त्व सैकड़ों तर्को प्रतितर्केण उत्थापितोऽपि भवति, किन्तु साक्षात्कृतं तत्त्वं से भी खंडित नहीं होता। इसलिए भगवान् ने साक्षात्कार के मार्ग को तर्कशतेनापि न खण्डितं भवति । अतो भगवता मुख्यता दी। जिसको पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है, वह वस्तूवत्त्या साक्षात्कारस्य मार्गः प्रधानीकृतः। यस्य पूर्वजन्मनः आत्मवादी होता है। उसको आत्मा के अस्तित्व में शंका नहीं रहती। स्मतिर्जायते स वस्तूवृत्त्या निःशङ्कआत्मवादी भवति। आत्मा के कालिक अस्तित्व की स्वीकृति होने पर लोकवाद, कर्मवाद आत्मनः कालिकेऽस्तित्वे लोकवादस्य, कर्मवादस्य, और क्रियावाद का स्वीकार होना स्वाभाविक है। क्रियावादस्य च स्वीकारः स्वाभाविको भवति ।। ___ जातिस्मृतेर्मुख्यं फलं असतो निवृत्तिः सति च प्रवृत्तिः जाति-स्मृति का मुख्यफल असत् से निवृत्ति और सत् में प्रवृत्ति तथा श्रद्धायाः प्रगाढता। 'दुगुणाणीय सड्डसंवेगे" तथा श्रद्धा की प्रगाढता है । 'दुगुणाणीय सङ्घसंवेगे' पाठ में यही तथ्य इतिपाठे एतदेव तथ्यं प्रतिपादितमस्ति । प्रतिपादित किया गया है। आयावाई-आत्मवादस्य निरूपणं पञ्चमाध्ययने . आत्मवादी-आत्मवाद का निरूपण पांचवें अध्ययन में किया कृतमस्ति। गया है। १. (क) आचारांग नियुक्ति, गाथा ६०-६२ : विदिगादिष, तासामेकप्रदेशिकत्वाच्चतुष्प्रदेशिकरवामणुया तिरिया काया तहऽग्गबीया चउक्कगा चउरो। च्चेति । (आचारांग वृत्ति, पत्र १४) देवा नेरइया वा अट्ठारस होंति भावदिसा ।। ३. आचारांग वृत्ति, पत्र १४ : अयं च दिक्संयोगकलापः पण्णवगदिसट्ठारस भावदिसाओऽवि तत्तिया चेव । 'अण्णयरीओ बिसाओ आगओ अहमंसी' त्यनेन परिगृहीतः । इक्किक्कं विधेज्जा हवंति अट्ठारसट्ठारा॥ ४. द्रष्टव्यम्-आयारो, ८५। पण्णवगदिसाए पुण अहिगारो एत्थ होइ णायब्वो। ५. अंगसुत्ताणि २, भगवई, ११।१७२ : तए णं से सुदंसणे सेट्ठी जीवाण पुग्गलाण य एयासु गयागई अत्थि ॥ समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुव्वभवे दुगुणाणीय (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १४ : इह दिग्ग्रहणात् प्रज्ञापक सङ्घसंवेगे......। दिशश्चतस्रः पूर्वादिका ऊवधिोदिशौ च परिगृह्यन्ते, भावदिशस्त्वष्टादशापि, अनुदिग्ग्रहणात्तु प्रज्ञापक ६. आयारो, ५१०४-१०६ : जे आया से विण्णाया, जे विदिशो द्वादशेति। विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया। २. (क) अंगसुत्ताणि २, भगवई, १०५,६ । तं पडुच्च पडिसंखाय। (ख) वृत्तावपि क्षेत्रदिक्षु जीवानामस्तित्वस्य उल्लेखो एस आयावादी समियाए-परियाए विवाहिते। लभ्यते-क्षेत्रदिशि तु चतसृष्वेव महादिक्षु सम्भवो, न ५।१२३-१४० सूत्राण्यपि द्रष्टव्यानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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