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________________ आचारांगभाष्यम् एकोनविंशः-परिज्ञा-'जं आउट्टिकयं कम्म, तं उन्नीसवां उपाय है---परिज्ञा-'अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए जो परिणाए विवेगमेति ।" कर्म-बंध होता है, उसका विलय परिज्ञा के द्वारा होता है।' विश:--आत्मनिग्रहः इन्द्रियजयो वा-'अत्ताणमेव बीसवां उपाय है.-आत्म-निग्रह अथवा इन्द्रिय-जय--'आत्मा का अभिणिगिज्झ।२ ही निग्रह करो।' एकविंशः-समत्वदर्शनम्-'समत्तदंसी ण करेति इकीसवां उपाय है-समत्वदर्शन--'समत्वदर्शी पुरुष पाप नहीं पावं ।" करता।' 'सर्वे आत्मानः सन्ति समाः'- इति सिद्धान्तं केन्द्री 'सभी आत्माएं समान हैं'-इस सिद्धांत को केन्द्र में रखकर कृत्य आचारस्य अनेके विधिनिषेधाः प्रवर्तन्ते, यथा आचारशास्त्र के अनेक विधि-निषेध प्रवृत्त होते हैं जैसे-- अहिंसा-'समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए। अहिंसा के विषय में 'सब आत्माएं समान हैं, यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए।' आचारांगे पंचमहाव्रतानां क्रमबद्धा व्यवस्था न आचारांग में महाव्रतों की क्रमबद्ध व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। लभ्यते, तथापि अहिंसाया इव सत्यस्य, अचौर्यस्य, फिर भी अहिंसा की भांति सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ब्रह्मचर्यस्य, अपरिग्रहस्य च महत्वपूर्ण स्थानमस्ति- का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैसे-- सत्यम् –'सच्चसि धिति कुब्बह ।'५ 'पूरिसा! सच्चमेव वह । पुरिसा सच्चमव सत्य के विषय मेंसमभिजाणाहि। सच्चस्स आणाए उवहिए 'पुरुष ! तू सत्य में धृति कर।' से मेहावी मारं तरति ।" 'पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर।' 'जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु अथवा कामनाओं को तर जाता है।' अचौर्यम-'अदुवा अदिण्णादाणं ।“ 'अदुवा अदिन्न- अचौर्य के विषय में.. माइयंति।" 'पर प्राणी का प्राण-वियोजन करना अदत्तादान है।' 'अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं।' ब्रह्मचर्यम्-'जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।" ब्रह्मचर्य के विषय में'णालं पास ।' 'अलं ते एएहिं । १२ 'एयं पास 'जो विषय है, वह आधार है । जो आधार है वह विषय है।' मुणी ! महब्भयं । 'तू देख, ये भोग तृप्ति देने में समर्थ नहीं हैं।' 'फिर भोगों से तुम्हारा क्या प्रयोजन ?' 'ज्ञानिन् ! तू देख, कामभोग महाभयंकर हैं।' अपरिग्रह:--'जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति अपरिगद के विषय मेंममाइयं । १४ 'से ह दिट्रपहे मणी, जस्स णत्थि 'जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को ममाइयं ।१५ त्याग सकता है।' "जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी ने पथ को देखा है।' समतायाः भूमिका बाह्यविषयपरित्यागसम्बद्धा एव समता की भूमिका बाह्य विषयों के परित्याग से ही संबद्ध नास्ति, किन्तु सा संबध्नाति अन्तश्चेतनाम् । तस्याः । नहीं है, किन्तु उसका संबंध अन्तश्चेतना से है । समता की सिद्धि सिद्धय नैके निर्देशा उपलभ्यन्ते के लिए अनेक उपाय प्राप्त होते हैं१. आहारविषये समत्वप्रयोगः-'पंतं लूहं सेवंति १. आहार के विषय में समता का प्रयोग–'समत्वदर्शी वीर पुरुष १. आयारो, ५१७३। २. वही. ३३६४। ३. वही, ३२८ । ४. वही, ३।३। ५. वही, ३।४०। ६. वही, ३॥६५॥ ७. वही, ३॥६६॥ ८. वही, ११५८। ९. वही, ८४। १०. वही, २।१। ११. वही, २२९७ । १२. वही, २१९८। १३. वही, २१९९; द्रष्टव्यानि ५७५-८८ सूत्राणि । १४. वही, २।१५६ । १५. वही, २३१५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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