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________________ २८६ आचारांगभाष्यम ११०. तहिट्ठीए तम्मुत्तीए, तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे। सं०-तदृष्टिक: तन्मूर्तिकः तत्पुरस्कारः तत्संज्ञी तन्निवेशनः । मुनि महावीर के दर्शन में दृष्टि नियोजित करे, उसमें तन्मय हो, उसे प्रमुख बनाए, उसको स्मृति में एकरस हो और उसमें वत्तचित्त होकर उसका अनुसरण करे। भाष्यम् ११०-द्रष्टव्यम्-५।६८ भाष्यम् । देखें-५।६८ का भाष्य । १११. अभिभूय अवक्खू, अणभिभूते पभ निरालंबणयाए । सं.-अभिभूय अद्राक्षीत् अनभिभूतः प्रभुः निरालम्बनताय । घातिकर्मों को अभिभूत कर महावीर ने देखा कि जो बाधाओं से अभिभूत नहीं होता, वही निरालम्बी होने में समर्थ होता है। भाष्यम् १११–चत्वारि घातिकर्माणि अभिभूय चार घातिकर्मों को नष्ट कर भगवान् महावीर ने देखा-जो भगवान् अद्राक्षीत्--यः अनुकूलप्रतिकलैः परीषहोपसर्गः मुनि अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों और उपसर्गों से पराजित नहीं अनभिभूत: स निरालम्बनतायै प्रभुर्भवति, आलम्बनानि होता, वह निरालम्बी होने में समर्थ होता है, वह सभी आलंबनों को परित्यक्तुमर्हति । यथा उत्तराध्ययने-संभोगपच्चक्खा- छोड़ सकता है । जैसे उत्तराध्ययन में कहा है -शिष्य ने पूछा- भंते ! णणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? . संभोज-प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? संभोगपच्चक्खाणणं आलंबणाई खवेइ। निरालंब- आचार्य ने कहा-संभोज-प्रत्याख्यान से मुनि आलम्बन-मुक्त णस्स य आययट्रियाजोगा भवंति । सएणं लाभेणं हो जाता है। जो निरालम्ब होता है, उसके सारे प्रयत्न मोक्ष की संतुस्सइ परलाभं नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो सिद्धि के लिए होते हैं। स्वयं उसे भिक्षा में जो कुछ मिलता है वह पत्थेइ नो अभिलसइ । परलाभं अणासायमाणे उसी में संतुष्ट हो जाता है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा में अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे दुच्चं वह आस्वाद नहीं लेता, उसकी ताक नहीं रखता, स्पृहा नहीं करता, सुहसेज्जं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ।' प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता । वह दूसरे को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद न लेता हुआ, उसकी ताक न रखता हुआ, स्पृहा न करता हुआ, प्रार्थना न करता हुआ और अभिलाषा न करता हुआ दूसरी सुख-शय्या को प्राप्त कर विहरण करता है । ११२. जे महं अबहिमणे । सं०-यो महान् अबहिर्मनाः । जो मोक्षलक्षी है, वह मन को असंयम में न ले जाए। भाष्यम् ११२-यो महान्–पुरस्कृतमोक्षः स जो महान् अर्थात् मोक्षलक्षी होता है, वह अबहिर्मना होता है। अबहिर्मना भवति, न च स संयमात शासनात् पञ्च- वह न संयम से, न धर्म की शासना से और न पांच प्रकार के आचारों विधाचारपदाद् वा बहिर्लेश्यो भवति । के अध्यवसायों से बाहर होता है। ११३. पवाएणं पवायं जाणेज्जा। सं०-प्रवादेन प्रवादं जानीयात् । प्रवाद को प्रवाद से जानना चाहिए। १. उत्तरज्झयणाणि २९।३४ । २. ची 'मह' इति पदं नास्ति व्याख्यातम् । तस्य स्थाने 'अहं' इति पदं दृश्यते । लेश्यामनसोरेकरवमपि लभ्यते-जे इति णिद्देसो, अहमेव सो जो अबहिमणोण णिग्गयमणो संजमाओ सासणाओ वा पंचविहायारपयाओ वा अबहिल्लेसो, जति अण्णउस्थियाणं वेउम्बियाइरिद्धिओ पासति तहावि न बहीमणो भवति, छलवाते वा णिग्गहीतो ण बहिलेसी भवति । (चूणि, पृष्ठ १९६) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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