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________________ ११८ आचारांगभाष्यम ६८. अलं ते एएहि। सं.-अलं ते एतः। फिर इनसे तुम्हारा क्या प्रयोजन ? माष्यम् ९८–एते कामभोगा अतृप्तिमुद्दीपयन्ति। ये कामभोग अतृप्ति को उत्तेजित करते हैं। इसलिए तुम्हार तेन तव एतैः अलम्-कि प्रयोजनम् ? इनसे क्या प्रयोजन ? &६. एयं पास मुणी ! महाभयं । सं०-एतत् पश्य मुने ! महाभयम् । शानिन् ! तू देख, यह महाभयंकर है। भाष्यम् ९९ हे मुने-ज्ञानिन् ! त्वं पश्य, एष हे ज्ञानिन् ! तू देख, यह विषयों की अभिलाषा महाभयंकर विषयाभिलाष: महाभयम् । एष विषयाभिलाषः प्रियः है। यह विषयाभिलाषा प्रिय और मृदु उद्दीपनों से उद्दीप्त होती है और मदुभिश्च उद्दीपनरुद्दीप्तो भवति वेदनाञ्च जनयति, वेदना को उत्पन्न करती है, इसलिए यह महाभयंकर है। कहा भी तेनासो महाभयः । भणितं चएतो व उण्हतरीया अण्णा का वेयणा गणिज्जंती ? इससे अधिक उष्णतर अर्थात् तीव्रतर अन्य कौनसी वेदना होगी जंकामवाहिगहितो डज्मति किर चंदकिरणेहिं ।' कि कामरूपी व्याधि से ग्रस्त व्यक्ति चन्द्रमा की शीतल किरणों से भी जल जाता है ! पौर्णमास्याश्चंद्रमसः मनुष्याणां भावेन अस्ति कश्चित् आज के वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि पूर्णिमा के चन्द्रमा का सम्बन्ध इति वैज्ञानिकानामपि साम्प्रतमभिमतमस्ति। मनुष्यों के भावों के साथ कुछ न कुछ संबंध अवश्य है। १००. णाइवाएज्ज कंचणं । सं०-नातिपातयेत् कञ्चन । पुरुष किसी भी जीव का अतिपात न करे। भाष्यम् १००-कामासक्त: हिंसायां प्रवर्तते । काम काम में आसक्त मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होता है । काम-विरति विरतेरनन्तरं हिंसाविरतेरुपदेशः-कमपि जीवं नाति- के पश्चात् हिंसा की विरति का उपदेश दिया गया है कि काममुक्त पातयेत् काममुक्तः पुरुषः ।' पुरुष किसी भी जीव का अतिपात न करे । १०१. एस वीरे पसंसिए, जे ण णिविज्जति आदाणाए। सं०-एष वीरः प्रशंसितः यो न निर्विन्ते अदानाय । वह वीर प्रशंसित होता है, जो अदान से खिन्म नहीं होता। भाष्यम् १०१-यस्य नास्ति परिग्रहः स जीवनधार जिसके पास परिग्रह नहीं है, वह अपने जीवन-निर्वाह के लिए णार्थं भोजनादिदानेन लभ्यते। दानञ्च दातुरिच्छा- भोजन आदि दान के द्वारा प्राप्त करता है । दान दाता की इच्छा पर श्रितम । कश्चिद् दाता न दित्सुरथवा नोचिता दान- निर्भर होता है। कोई दाता देना नहीं चाहता अथवा उचित दान सामग्री सामग्री, तदानीमदानं स्यात् । तस्यामदानावस्थायां प्राप्त नहीं है, तब अदान की स्थिति पैदा होती है अर्थात् उस व्यक्ति १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७५ में उद्धृत गाथा । बहुत मूल्यवान् है । २. भोग और हिंसा एक ही रेखा के दो बिन्दु हैं । ऐसा कोई ३. चूणों (पृ० ७५) 'अदाणाए' इति पाठो व्याख्यातः---'जे भोगी नहीं है जो भोग का सेवन करता है. और उसके ण णिविज्जति अदाणाए' णिग्वेदो णाम अप्पणिवा, लिए हिंसा नहीं करता । जहां हिंसा है वहां भोग हो भी अलब्भमाणा णिव्विदति अप्पाणं-कि मम एताए सकता है और नहीं भी होता । जहां भोग है वहां हिंसा दुल्लभलाभाए पव्वज्जाए गहियाए ? निश्चित है । अतः भोग के संदर्भ में अहिंसा का उपदेश वृत्तो (पत्र ११६) । 'आदानाय' इति पाठो व्याख्यातोऽस्ति। घार Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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