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________________ ११४ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ८१-अत्र २।६५ सूत्रस्य भाष्यांशः पुन- यहां २/६५वें सूत्र का भाष्यांश जोड़ देना चाहिए-तीन प्रकार रावर्तनीयः-त्रिविधेन-स्व-पर-तदुभयप्रयत्नेन अथवा से--स्व-पर और तदुभय के प्रयत्न से अथवा मानसिक, वाचिक और मानसिक-वाचिक-कायिकप्रयत्नेन तस्य पार्श्वे अल्पा वा शारीरिक प्रयत्न से उसके पास अल्प या बहुत अर्थ की मात्रा हो जाती बह्वी वा अर्थमात्रा भवति, यथा-सहस्रपतिः, लक्षपतिः, है, जैसे- सहस्रपति, लक्षपति और कोटिपति । कोटिपतिरिति । ८२. से तत्थ गढिए चिट्ठति, भोयणाए। सं०-स तत्र ग्रथितः तिष्ठति, भोजनाय । वह उस अर्थ-राशि में आसक्त रहता है और भोग के लिए उसकी अपेक्षा रखता है। ८३. ततो से एगया विपरिसिठं संभूयं महोवगरणं भवति । सं.-ततः तस्य एकदा विपरिशिष्टं संभूतं महोपकरणं भवति । भोग के बाद बची हुई प्रचुर अर्थराशि से उसके पास विपुल अर्थराशि हो जाती है। ८४.तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा से डज्झइ। सं०-तदपि तस्य एकदा दायादाः विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य अपहरति, राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य, विनश्यति वा तस्य, अगारदाहेन वा तस्य दह्यते । एक समय ऐसा आता है कि उस संचित अर्थराशि से दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं, या चोर उसका अपहरण कर लेते हैं, या राजा उसे छीन लेते हैं, या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है, या गृहदाह के साथ वह जल जाती है। ८५. इति से परस्स अट्टाए कूराई कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ । सं०-इति स परस्य अर्थाय क्रुराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणः तेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति । इस प्रकार अज्ञानी पुरुष दूसरे के लिए क्रूरकर्म करता हुआ उस दुःख से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है। भाष्यम् ८२-८५–एतानि सूत्राणि पूर्ववद् पूर्ववत् देखें-सूत्र ६६-६९ । (६६-६९) द्रष्टव्यानि। ८६. आसं च छंदं च विगिंच धीरे। सं०-आशा च छंदञ्च वेविक्ष्व' धीर!। हे धीर ! तू आशा और छंद को छोड़ । भाष्यम् ८६-विपर्यासनिवृत्तये हे धीर! त्वं हे धीर! तू विपर्यास को मिटाने के लिए आशा और छंद का आशां छन्दञ्च वेविश्व-परित्यज। परित्याग कर । आशा-भोगाभिलाषः। आशा का अर्थ है-भोग की अभिलाषा । छन्दः-इन्द्रियसुखवृत्तिः । छन्द का अर्थ है-इन्द्रिय-सुखों की पराधीनता । छन्दो णाम पराणुवत्ती, अणासंसंतोवि कोपि चूणि के अनुसार छन्द का अर्थ है दूसरे के अधीन रहना । कोई पराणुवत्तीए अकुसलं आरभति इति चूणौं ।' व्यक्ति आशंसा न होने पर भी दूसरे की अधीनता के कारण अकुशल (अशुभयोग) की प्रवृत्ति करता है। १. (क) विज नक पृथग्भावे इति धातोः रूपम् । (ख) विचन् पृथग्भावे इति धातोः रूपं 'विश्व' भविष्यति । २. आप्टे, छन्द-Pleasure. ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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