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________________ आचारांगभाष्यम् प्राणिनां इन्द्रियगणस्य माध्यमेन बाह्यजगत: सम्पर्को प्राणियों का बाह्य जगत् के साथ संपर्क इन्द्रियों के माध्यम से भवति । तत्र चक्षुश्रोत्रयोरेव प्राधान्यम् । भाषात्मकः होता है। संपर्क-सूत्र में आंख और कान की ही प्रधानता है । भाषा के सम्पर्क: समाज सूत्रयति । अभाषकाणां नास्ति समाजः। आधार पर होने वाला संपर्क समाज की संरचना करता है । अभाषक तेषां भवति समजः । अत उच्यते- 'समजस्तु पशूनां स्यात, प्राणियों का 'समाज' नहीं होता, 'समज' होता है ! इसीलिए कहा समाजस्त्वन्यदेहिनाम् ।' चक्षुषा प्रत्यक्षं दृष्टा भवन्ति है-'पशुओं का समज होता है, अन्य प्राणियों का समाज ।' आंखों पदार्थाः। अत एव सामाजिकसंघटनायां एते द्वे एव से पदार्थ प्रत्यक्षरूप में देखे जाते हैं। इसलिए समाज की संघटना में मुख्यत्वं भजतः । सूत्रकारेणापि अनयोविषयाणां उल्लेखः आंख और कान-ये दो ही मुख्य होते हैं। सूत्रकार ने भी प्रस्तुत कृतः। आलापक में इन दोनों इन्द्रियों के विषयों का उल्लेख किया है। आचारचूलायामस्य विषयस्य समर्थनपरा: पञ्च- आचारचूला में इस विषय के समर्थन में पांच गाथाएं उपलब्ध गाथा उपलभ्यन्ते ।' होती हैं। मू -रागद्वेषपरिणामः । मूर्छा का अर्थ है-राग द्वेष का परिणाम । ६६. एस लोए वियाहिए। सं०-एष लोको व्याहृतः। इसे लोक (आसक्ति का जगत्) कहा जाता है। भाष्यम् ९६ - एष इन्द्रियविषयलोको मुच्छत्मिक: इस इन्द्रियविषयलोक को मूत्मिक कहा गया है। मोह से व्याहृतः । मूर्छा मोहाक्षिप्तचेतसां नृणां सहजा भवति। आक्षिप्त चित्तवाले मनुष्यों के मूर्छा सहज होती है। उसके उद्दीपन इन्द्रियविषयाः तस्या उद्दीपने निमित्ततां भजन्ति । भिन्ना में इंद्रिय-विषय निमित्त बनते हैं। मूर्छा भिन्न है इंद्रिय-विषय मुर्छा भिन्नाश्चेन्द्रियविषयाः। सत्यपि भेदे सम्बन्ध- भिन्न हैं। दोनों में भेद होने पर भी दोनों एक-दूसरे के संबंध हेतुत्वादभेदोपचारेण इन्द्रियविषयलोकः मूत्मिको के हेतु बनते हैं, इसलिए अभेदोपचार से इंद्रियविषयलोक को मूर्छात्मक लोक इतिवक्तुं युक्तम् । लोक कहना उपयुक्त है। ६७. एत्थ अगुत्ते अणाणाए। सं०-अत्र अगुप्तः अनाज्ञायाम् । जो पुरुष इस लोक में अगुप्त होता है, वह आज्ञा में नहीं है। भाष्यम् ९७-एषु वनस्पतिजनितेषु कामगूणेषु यो जो मनुष्य इन वनस्पति-जनित कामगुणों में अगुप्त है, वह मनुष्योऽगुप्तोऽस्ति, सोऽनाज्ञायां वर्तते । अनाज्ञा में है। अगुप्तः-रागद्वेषवशंगतः । अगुप्त का अर्थ है-रागद्वेष के वशीभूत । आज्ञा-सूक्ष्मतत्त्वावबोधः अथवा अतीन्द्रियतत्त्व- आज्ञा का अर्थ है-सूक्ष्म तत्त्वों का ज्ञान अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान १. अंगसुत्ताणि १, आयारचूला, १५७२-७६ : २. अंगसुत्ताणि १, ठाणं २१४३२-४३४ : ण सक्का ण सो सद्दा, सोयविसयमागता । दुविहा मुच्छा पण्णत्ता, तं जहा-पेज्जवत्तिया चेव, दोसरागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ वत्तिया चेव। णो सक्का रूवमदहूं, चक्खुविसयमागयं । पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णता, तं जहा-माया चेव, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । लोमे चेव । णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं । बोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-कोहे चेब, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । माणे चेव । णो सक्का रसमणासाउं, जोहाविसयमागयं । ३. चूणों 'एस असंजतलोए वियाहिए' इति व्याख्यातम् । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३४) णो सक्का ण संवेदे, फासविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खु परिवज्जए॥ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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