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________________ मचल रहा था। कभी गंभीर तो कभी चंचल तन-मनका प्रवाह दिशा ढूंढ रहा था। वे अगम्य गूढ शक्तियोंकी करामतें देवीदासकी ऊंगलियोंसे बरबस बहने लगीं। किसीसे भी मार्गदर्शन या शिक्षा पाये बिना ही उन ऊंगलियोंसे खिची गईं रेखायें अपने आपमें अनूठे चित्र स्वरूपको ग्रहण कर लेने लगीं। कैसा भी दृश्य एक बार देख लेने पर उसका तादृश चित्र बनाना, मानों उनके बायें हाथका खेल था। पशु-पक्षी हों या नर-नारीका; नैसर्गिक सौंदर्य हों या कल्पना पंखेरुकी उड़ानका चित्र होंचित्रित करने में वे बड़े ही निपुण थे। अंग्रेजों और सिक्खोंकी लड़ाई, दोनों सेनाओंका परस्पर युद्ध, दौड़ते घुड़स्वार, इधर-उधर भागते हुए सशस्त्र सैनिक, सैन्यकी चलती हुई पल्टनको चित्रित करना हों या जोधाशाहजी के मकानको चित्रितकर उसमें स्वयं लालाजी और पारिवारिक जनोंका रेखाचित्र अंकित करना हों वा ताशके पत्ते चित्रित करने हों-ये और उनके सदृश कईं चित्रोंको चित्रित करना इनके मनोरंजनका साधन था। एकबार एक अफसरके 'ताश' मंगवाने पर, उदार-जिंदादिल, मित्रमंडलीके इस अफसर 'आत्मारामजी'ने जब हस्तचित्रित ताश भेंट कर दिया, उस वक्त प्रसनतासे उस परदेशी अफसरने इस बाल-कलाकारकी अद्भुत कलाकी हार्दिक प्रशंसा करते हुए, बड़े भारी सम्मानसे पुरस्कृत किया। लेकिन, अफसोस, एक गैरसे तारिफ़ पानेवाले इस महान कलाकारकी स्वजन-स्नेहीजनोंने-'घर की मूर्गीदाल बराबर'-न उसकी कद्र समझी, ना उन उत्तम कृतियों का कोई संकलन ही किया -नाहि कहीं नामोनिशान तक रहा,जो प्रायः किसी भव्य संग्रहालय या कला प्रदर्शनीको शोभायमान करनेका सम्पूर्ण सामर्थ्य रखती थीं। ऐसा क्यों हुआ ? शायद, तत्कालीन जनसमाजकी घोर अज्ञानता, कलापरख का अभाव, संग्राहक रसिक-परीक्षक कला दृष्टि शून्यता-या ग्रामीण जड़-मूर्खता ही मानो! ऐसे अनेक चित्रोंके अंकनकर्ता-इस बाल चित्रकारने क्रमशः पुख्ता प्राप्त कर जैन समाजके मानचित्रको भी समूचे-सुंदर ढंगसे यथासमय-यथायोग्य इस कदरसे चित्रित किया; अपनी दूरंदेशीय कल्पनाके ऐसे स्वर्णिम-सुरम्य रंग भरे जो आज भी जैन संघके समस्त साधु और श्रावक समाज़ रूप दोनों नेत्रोंको प्रमोदित कर रहे हैं। उसी रंगमें रंगा जैन धर्म, आपके ही अथक-अविश्रान्त-अतुल परिश्रमके परिणाम स्वरूप सारे विश्वमें श्रीयुत् वीरचंदजी गांधीके सहयोगसे प्रचलित-प्रकाशित एवं प्रसारित हो पाया। आपकी उन गूढ शक्तियों की ही देन है कि अद्यापि अन्य धर्मावलम्बी-आस्थावान् भक्तगण उन्हें अंतरकी गहराईसे चाहते हैं। यही चित्रांकन आपके विविध ग्रन्थालेखनमें भी कदम-कदम पर बिखरे पुष्पकी सजावट देते हैं यथा - (१) अशरणके शरण श्री अजितनाथ भगवंतकी स्तवना करते हुए शरण्य-भावांकन--- “जन्म मरण जन फिरत अपारा.......हुं अनाथ उरझ्यो मझधारा......... कर्म पहार कठन दुःखदायी...........नाव फसी अव कान सहायी । पूर्ण दया सिन्धु जगस्वामी, झटति उधार कीजोजी..........तुम सुणीयोजी.......। (२) पैनी दृष्टिसे किया गया संसारकी क्षण भंगुरताका चित्रण . “आलम अजान मान, जान सुखदुःख खान, खान सुलतान रान, अंतकाल रोये हैं। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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