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________________ भाँति इन्होंने भी ब्राह्मणोंको अध्यात्मोन्मुख बनाकर याज्ञिकी हिंसासे मुक्त किया, जिससे यज्ञमें हिंसाका स्थान अहिंसाने लिया। आर्य संभूति और आर्य भद्रबाहु स्वामीको शासनकी बागडौर सौपकर ८६ सालकी आयुमें वी.सं.१४८में ५० वर्ष तक युग प्रधानपद धारी प्रभावक आचार्य श्री कालधर्मको प्राप्त हुए। आर्य संभूति विजयजी--माद र गोत्रीय ब्राह्मण कुलमें वी.सं. ६६में जन्मे और आचार्य यशोभद्रजीके उपदशसे जैनत्व वासित परम वैराग्यसे वी.सं. १०८में दीक्षा ग्रहण की। पूर्वागमोंका अध्ययन करके वी.सं. १४८में आचार्य पद प्राप्त किया। उनकी निश्रामें श्रुत सम्पन्न गुरुभाई श्री भद्रबाहु स्वामी, कामविजेता श्री स्थुलभद्र, घोर अभिग्रहधारी श्रेष्ठ मुनि मंडल एवं प्राज्ञ-प्रतिभा सम्पन्न यक्षादि साध्वियाँ आदि बारह प्रमुख शिष्य सह विशाल परिवार था। यक्षा साध्वीजी म.को श्री सिमंधर स्वामीसे चार चूलिकायें ६२ प्राप्त हुई थी। ४२ वर्षकी आयुमें दीक्षा और बयासी वर्षकी आयुमें युगप्रधान बनें। नब्बे वर्ष की आयु पालकर वी.सं. १५६में स्वर्गवासी हुए। भद्रबाहु स्वामी---प्राचीन गोत्रीय-विशिष्ट महाप्राण ध्यानके ध्याता-महासत्त्ववान् श्री भद्रबाहु स्वामीका जन्म वी.सं. ९४में हुआ और दीक्षा वी.सं. १३९में लेकर, श्रुतकेवली बनकर, वी.सं १५६में सूरिपद प्राप्त किया। ७६ वर्षकी आयु पूर्ण करके वी.सं.१७०में स्वर्गवासी हुए। उनके चार स्थविर शिष्य और दृढ़ाचार पालक-निरंहकारी-धर्म प्रवचन तत्पर-दृढ़ प्रतिज्ञ चार शिष्य थे, जो प्रतिज्ञाका पालन करते करते काल-कवलित हो गए। वीर द्वितीय शताब्दिके बारह वर्षीय दुष्कालानन्तर स्थुलभद्रने उनके पास चौदह पूर्वका अध्ययन किया। भद्रबाहुजीने ४५ आगमोंमेंसे आचार शुद्धिके विभिन्न प्रायश्चित्तविधिविधान निरूपण करनेवाले महत्त्वपूर्ण चार छेदसूत्रोंका उद्धार किया। 'छेद' नामक प्रायश्चित्तके आधार से उनका ‘छेदसूत्र' नामकरण किया। आर्य स्थुलभद्र वि.-- अंतिम श्रुतकेवली, सुतीक्षण प्रतिभा सम्पन्न-उच्च कुलोत्पन्न-श्री संभूती विजयजीके धीर-गंभीर-दृढ़ मनोबली-विनयवान-गुणवान शिष्य-श्रमणवर्गभूषण-कामविजेता-मंत्रीश्री शकड़ालके ज्येष्ठ । पुत्र श्री स्थुलभद्रजीका जन्म वी.सं. ११६में गौतम गोत्रीय ब्राह्मण कुलमें हुआ था। नर्तकी कोशाके संपर्क से विषय-वासनामें लुब्ध, लेकिन राजनैतिक षड्यंत्रमें पिताकी मृत्युके समाचारसे मोहतंद्रासे सहसा जागृत होकर-वैरागी बनकर संयम स्वीकार किया वी.सं. १४६ में श्री संभूति मुनिके पास। आगमाध्ययन पश्चात् कोशाको भी उसके घर चातुर्मास करके प्रतिबोधित की और व्रतधारी श्राविका बनायी। भद्रबाहुजीके पास नेपाल जाकर चौदह पूर्वकी विपुल ज्ञान राशिको धैर्यतासे ग्रहण करके श्रुतधाराका रक्षण किया। आयुके अंतिम १५ दिन अनशन करके वी.सं. २१५में ९९ वर्षकी आयु पूर्ण करके स्वर्गवासी हुए। आर्य महागिरिजी---प्रथम दसपूर्वी, महाप्राज्ञ, परमत्यागी, श्री शील-द्युति सम्पन्न, सुदक्ष आचार्य, निरतिचार संयमाराधक, जिनकल्प४ तुल्य साधना के विशिष्ट साधक, एलापत्य गोत्रीय श्री महागिरिजीका जन्म वी.सं. १४५में हुआ। यक्षाजीसे पालित होनेसे बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न बने। वी.सं. १७५में संयम स्वीकार किया। स्थुलभद्रजीसे अध्ययन बाद आचार्य पदका उत्तरदायित्व तीस 38) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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