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________________ और देव-देवियों द्वारा बड़े ठाठसे कैवल्य-महोत्सव मनाया गया। अभावित पर्षदा और तीर्थ स्थापना-देवोने रजत-सुवर्ण-रत्नमय तीन प्राकार-युक्त, रत्नमय सिंहासनालंकृत समवसरणकी रचना की। विरति परिणामके अभावज्ञाता-सर्वज्ञ-देवाधिदेवने तीर्थंकर नामकर्म-भुक्ति के लक्ष्यसे और आचार निर्वाहके कारण देशना प्रवाह बहाया जिससे यह आश्वर्य घटित हुआ कि सर्व तीर्थंकरकी प्रथम देशना सुनते ही भव्य नर-नारी भवनिर्वेद प्राप्त होनेसे सर्वविरति या देशविरति यथाशकित ग्रहण करते हैं और तीर्थपति तीर्थकी स्थापना करते हैं; जबकि चरम तीर्थंकर भगवान महावीरस्वामीकी आद्य देशनामें तथाभावयोग्य नर-नारीके अभावसे अथवा अगम्यकारणवश किसीको विरति परिणाम नहीं हुए, न किसीने विरतिधर्म अंगीकार किया, अतएव तीर्थ स्थापना हो न सकी अर्थात् प्रथम देशना निष्फल हुइ। ६३ देशना समाप्ति पश्वात् श्री वीर प्रभुने लाभालाभके कारण विहार कर अपापापुरीमें पदार्पण किया। देव विरचित समवसरणमें देशना प्रारंभ हुई। उस समय अपापानगरीके ब्राह्मण सोमिल द्वारा आयोजित यज्ञमें आमंत्रित, ४४०० शिष्य परिवारवाले विचक्षण-विद्वान ग्यारह द्विज, प्रभुकी सर्वज्ञतामें शंकित होते हुए वाद करनेके लिए उद्यत हुए। भ. महावीरने उनकी प्रत्येककी शंकाओंका बिना पूछे ही सत्योक्ति युक्त वेदवाक्यों के अवलंबनसे ही समाधान करने पर इन्द्रभूति आदि ग्यारह द्विजोंने सर्वज्ञताके झूठे गर्वको त्यागकर भगवंतका शिष्यत्व अंगीकार किया। परमात्मा वीरने “त्रिपदी" प्रदान की, जिसके अवलंबनसे द्वादशांगी की रचना की गई। अतएव जगद्गुरु भ. महावीरने 'गणधरपदप्रदान' रूप वासनिक्षेप किया, और द्रव्य-गुण पर्यायसे तीर्थकी अनुज्ञा प्रदान की। चंदनबालादि अनेक कन्या एवं नारीवृंद को दीक्षा प्रदान कर साध्वीपदका वासनिक्षेप किया। हज़ारों नरनारियोंने देशविरति (श्रावक) धर्म अंगीकृत करके आत्मकल्याण पथ पर पदार्पण किया। इस तरह चतुर्विध संघ स्थापित हुआ। केवलीपर्याय-विचरण कालमें श्रेणिक, कुणिक, अभयकुमार, आर्द्र कुमार, मेघकुमार, नंदिषेण नपति चेटक. और उसकी सज्येष्ठा-चिल्लणादि सात बेटियाँ, सलसा, अंबड परिव्राज ऋषभदत्त-देवानंदा. प्रियदर्शना-जमालि. आनंद-शिवा, कामदेव-भद्रा, चलनीपिता-श्यामा, सुरादेवधन्या, चुल्लशतक-बहुला, कुंडकोणिक-पुष्पा, शब्दालपुत्र-अग्निमित्रा, महाशतक-रेवती, नंदिनीपिताअश्विनी, लांतकपिता-फाल्गुनी, मृगावती, प्रसन्नचंद्र, दशार्णभद्र, शालिभद्र साल-महासाल, धन्य, रोहिणेय चोर, खूनी दृढ़प्रहारी, अर्जुनमाली, सुदर्शन श्रेष्ठि, उदायन राजर्षि, आदि अनेक भव्यात्माओंने आपकी शरण ग्रहण करके, आपके चरण चिह्नों पर चलकर आत्मकल्याणअपवर्ग या स्वर्गादिकी उत्तमोत्म गतियों के लाभकी प्राप्ति की है। इस अवसर्पिणी कालमें गर्भहरण, चमरेन्द्रका उत्पादादि दस आश्वर्यकारी प्रसंग प्राप्त होते है, जो असंख्य कालचक्र व्यतीत होने पर प्रादुर्भूत होते हैं। सामान्यतया केवली पर्यायावस्थामें 'अशाता वेदनीय कर्म का' उदय नहीं होता है, लेकिन आपके कैवल्य-प्राप्ति पश्चात् आपसे ही प्राप्त 30 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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