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________________ " समस्त विश्वका कल्याण हों, सर्व जीव परस्पर परहितमें रत हों, विश्वके सर्वदोष, विघ्न, पाप, अशुभ भाव नष्ट होकर समग्र विश्व चौदह राजलोक के जीव सुखी बनें। " ऐसी उत्तमोत्तम भावनायुक्त विश्वधर्म, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, तत्त्वज्ञान, धर्मादि विभिन्न दृष्टि बिंदुओं से भिन्नभिन्न विद्वानों द्वारा वर्णित मंतव्यों से वर्तमानकालीन अपनी उपादेयताको प्रमाणित करता हुआ दृष्टव्य है यथा १. जंनधर्मने विश्वको उर्ध्वगामी अहिंसाके तत्त्वज्ञानकी भेंट दी है। जैन धर्म उसके अंहिसाके तत्त्वज्ञानके कारण विश्वधर्म बनने योग्य है डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी २. प्राचीन ईजिप्तका लाखों वर्ष पुराना माने जानेवाला धर्म, जैन धर्मसे अत्यधिक साम्य रखता था - डॉ. रोबर्ट चर्चवेल २४ ३. हां. जैन धर्म ही विश्वका सत्य धर्म है। समग्र मानव जातिका सर्व प्रथम श्रद्धान् योग्य धर्म- जैनधर्म है। रेव. ए. जे डुबोइस .२५ ८. "अगर संपूर्ण विश्व जैन होता तो, सचमुच, विश्व अधिक सुंदर होता । " डॉ. मोराइस ब्लूम - अत्र क्षेत्राश्रयी दृष्टिबिंदु से निरीक्षण करें तो हमें ज्ञात होगा कि जैनधर्म एवं जैन सिद्धांत सारे विश्व में प्रसारित एवं प्रचलित है, अतीतमें भी थे। इतिहास बोलता है कि - महान सम्राट, विश्व विजेता सिकंदर, भारतीय संस्कृतिको अपने साथ ले जाना चाहता था। उसने जैन साधुको पसंद किया और उन्हें ग्रीस ले जाकर जैन धर्मका प्रचार करवाया। ii. माना जाता है कि आज भी एथेन्समें जैन श्रमण-साधु भगवंतकी समाधि बनी हुई है। - iii. सिलोनमें भी गुफाओंमें स्थित प्रतिकृतियों के दर्शनसे वहाँ जैन धर्मका प्रचार सिद्ध होता है । iv. एमेझोन नदीके किनारेकी एक गुफामें से प्राप्त हुई भगवान श्री प्रार्श्वनाथजीकी भव्य प्रतिमा आजभी रोमके एक संग्रहस्थानमें बिराजमान है। जैन भूगोलानुसार ढाईद्वीप के पन्द्रह क्षेत्रोंके (पांच भरत, पांच ऐरवत, पाँच महाविदेह क्षेत्र) सभी आर्य क्षेत्रों में जैन धर्मका प्रचार प्रसार था है और होगा भी। इसी बातको प्रतिध्वनित करते हैं मेजर जन फरलोंगके शब्द It is impossible to know the begining of Jainism अर्थात् प्रारम्भ है ही नहीं अतएव जैनधर्म शाश्वत है। (७) शाश्वतधर्म (अनादि धर्म) जो अनंत कालचक्रोंकी अनंत चौबीसीमें हुए और अनंत कालचक्रों तक अनंत चौबीसीमें होनेवाले महापुण्यवंत तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित धर्म, काल प्रवाहकी अपेक्षासे, शाश्वत धर्म है। जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रकी सांप्रत चौबीसीके अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीजी आदिने उसी धर्मकी प्ररूपणा की, जिसका निरूपण प्रथम तीर्थपति श्री Jain Education International 11 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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