SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५. वाणीके पैंतीस गुण---तीर्थंकर भगवंत केवलज्ञान पश्चात् देश्शाना फरमाते हैं उस वाणीमें पैंतीसगुण होते हैंयथा सुसंस्कृत, उदात्त, अप्राम्यत्वम्, गंभीर, प्रतिनाद विधायिता, दाक्षिण्यता युक्त, उपनीत रागत्वम्, महार्थता, पूर्वापर विरोध रहित, शिष्ट, निराशंसय, निराकृत इन्योत्तरत्वम्, हृदयंगम्, परस्पर पद वाक्यादिकी सापेक्षता युक्त, देशकालोचित, तत्त्वनिष्ठ असम्बद्ध या अतिविस्तार रहित, आत्मोत्कर्ष या परनिंदा वर्जित, आभिजात्य, अति स्निग्ध-मधुर, प्रशस्य, मर्मवेधी, उदार, धर्मार्थ प्रतिबद्ध, कारक-काल- लिंगादिके विपर्यय रहित, विभ्रमादि वियुक्त, जिज्ञासाजनक, अद्भूत, अति विलम्ब रहित, विभिन्न विषयोंका निरूपण करनेवाली, वचनान्तरकी अपेक्षासे विशेषता युक्त, सत्त्व प्रधान, वर्ण-पद-वाक्य संयुक्त, अव्यवच्छिन्न प्रवाह युक्त (विविक्षार्थकी सिद्धि करवानेवाली), खेद या थकावट रहित ५६. ५७. ५८. ५९. ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. ६८. ७०. विकलेन्द्रिय- दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय-अर्थात् संपूर्ण पंचेन्द्रिय रहित जीव । वैमानिक आदि चार स्वर्गमें जो विमानमें रहें वे देव वैमानिक तिचलोकके मेरु पर्वतके चारों ओर प्रदक्षिणा ७१. करनेवाले सूर्य-चंद्रादि ज्योतिष्क, भुवनपति और व्यंतर ये चार प्रकारके देव होते हैं। शक्रस्तव--- तीर्थंकर भगवंतोंके कल्याणक अवसरमें सौधर्मेन्द्र द्वारा की जाती उनकी स्तुति पाठ | शुक्लध्यान --- ध्यान चतुष्कका ये अंतिम ध्यान है जिसके चार चरण हैं। केवल ज्ञानीको प्रथम दो चरणवाला शुक्ल ध्यान होता है और मोक्षप्राप्तिके चरम अंतर्मुहूतमें इस ध्यानके तृतीय और चतुर्थपादमें आत्माका रमण होता है । समवसरण- श्री तीर्थंकर भगवंतके केवल ज्ञान पश्चात् चारों प्रकारके देवों द्वारा भगवंत के लिए देश भूमि तैयार की जाती है जिसमें प्रथम रजतका द्वितीय स्वर्गका तृतीय स्वर्ण रत्नोंका तीन प्राकार देवकृत होते हैं, उस पर देव रत्नमय सिंहासन और पादपीठकी रचना करते हैं। जिसके चारों ओर ऊपर चढनेके लिए बीस-बीस हज़ार सीढ़ीयाँ होती है। जो प्रायः एक योजनके विस्तारवाला वृत्त या चौकुन होता है। सम्यक्त्व मोक्ष महलका प्रथम सोपान-केवलज्ञान प्राप्ति हेतु सम्यक्त्व प्राप्तिको नीवं माना गया है । सम्यक्त्वका प्रकटीकरण अर्थात् देव-गुरु-धर्म-तत्त्वत्रय पर अखंड़ आस्था । सर्वज्ञता - विश्वके सर्व द्रव्य पर्यायोंको समकाले संपूर्ण रूपसे जानना (केवली भगवंतका गुण है) सर्वार्थ सिद्ध- सर्वोत्कृष्ट भौतिक सुख-समृद्धि भोगनेका उत्तमोत्तम स्थान - अनुत्तर विमान जहीं देवोंकी आयु ३३ सागरोपम-प्रत्येक ३३ पक्षके पश्चात सांस लें, तैंतीस हज़ार साल पश्चात् आहारकी इच्छा हो । जहाँ केवल ज्ञानध्यानादि शुभप्रवृत्ति ही हों ये सभी देव एकावतारी होते हैं। सागरोपम-- दस कोडाकोडी पल्योपम = १ सागरोपम (पल्योपमका स्वरूप पूर्वांकित है ) सिद्धिगति- इसे पंचमगति भी कहते हैं। जीव आठों कमसे संपूर्ण मुक्त हो जानेके बाद ऋजुगतिसे (सीधी गतिसे) कमानसे छूटे तीर सदृश एक समयमें सिद्धशिला प्रति गमन करता है उस गतिको सिद्धिगति कहते हैं । मोक्ष प्राप्त करानेवाली गति सिद्धिगति है । 1 --- देश--- स्कंधका कोई एक खंड-टूकडा-विभाग- जो स्कंध से संयुक्त है उसे देश कहा जाता है । उदा. पुस्तकका एक पन्ना, जो पुस्तकसे संलग्न है । वही पन्ना अलग हो जाने पर स्वतंत्र स्कंध रूपमें व्यवहृत होता है । ६९. प्रदेश - स्कंध या देशसे युक्त पदार्थका सूक्ष्मातिसूक्ष्म, सर्वज्ञके ज्ञानलवसे अविभाज्य अंश प्रदेश कहलाता है । सूक्ष्म बादर-- सूक्ष्म नामकर्मके उदयवाले, चौदह राजलोक व्यापी, केवलज्ञान रूपी चक्षुको ही गोचर या दृश्यमान, लेकिन अनंत राशि (संख्या) में इकट्ठे होने पर भी धर्मचक्षुके लिए अदृश्य अगोचर जीव-जिनका छेदन-भेदन-ज्वलन न हो सके वे सूक्ष्म जीव कहलाते हैं। बादर नामकर्मके उदयवाले चौदह राजलोक व्यापी. चर्मचक्षुको भी गोचर- दृश्यमान, प्रत्येक या साधारण रूपमें छेदन भेदन ज्वलनके गुण-स्वभाववाले एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवोंको बादर कहते हैं । स्कंध -- असंख्य परमाणुसे बने किसी एक पदार्थका संपूर्ण स्वरूप स्कंध कहलाता है । उदा. एक पुस्तक- एक स्कंध स्वरूप है । Jain Education International उदा. पुस्तक या पन्नाका एक रज-प्रमाण सूक्ष्मांश परमाणु- पदार्थसे (स्कंध या देश से) संयुक्त प्रदेश कहलानेवाला निर्विभाज्य सूक्ष्मांश जब पदार्थ से विमुक्त होता है, तब वही सूक्ष्मांश परमाणु संज्ञासे पहचाना जाता है । स्यात् स्याद्वादका प्राण स्यात्' शब्द है, जिसका अर्थ है कथंचित्, आंशिक V For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy