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________________ पौषध-व्रजऋषभनाराच संघयण-आदिके अर्थ और स्वरूप, परिषह और उपसर्ग दोनोंके स्वरूपप्रकार परिभाषा एवं दोनों में अंतर, भ.महावीरका प्रणीत भूमिमें विचरणकाल, उग्रकुल और भोगकुल; अणुव्रत-गुणव्रत एवं शिक्षावत; कायोत्सर्गकी मुद्रा आदिका शास्त्रीय स्वरूप; श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों शाखाओं की उत्पत्तिका समय स्वरूप और उन पर प्रो. जेकोबीके अभिप्रायकी समीक्षा, जैनों की पूर्वांकित दोनों शाखाओं के आगमान्तर्गत बारह अंग विषयक अभिप्राय-ग्रन्थकारके 'अज्ञान तिमिर भास्कर' ग्रन्थ विषयक डॉ.रुडोल्फकी कुछ शंकाओंके प्रत्युत्तरके अंतर्गत भद्रबाहु स्वामीजीके निर्वाणका निश्चित समय, तेईस उदयोंका स्वरूप, योरप और अमरिकामें जैन छपे हुए सूत्रों की सूचि-संभूति विजयजी और भद्रबाहुजीकी शिष्य परंपराका विस्तृत वर्णनसंभूतिविजयजीके नंदनभद्रकी शिष्य परंपरासे दिगम्बर मतके प्रारंभके निरूपणकी दिगम्बर और श्वेताम्बर पटावलीके प्रमाणोंसे सिद्धि-आचाम्ल (आयंबिल) तपका स्वरूप और परिभाषावृद्धगणेश (सर्वगणियोमें बड़े), वीस विश्वोपक, पट महोत्सव, सप्तक्षेत्र, शत्रुजय उद्धार विषयक 'श्री आदिनाथस्य षष्ठोद्वारस्य' आदि शब्दों के अर्थ और स्वरूप; 'जैनमत वृक्ष' ग्रन्थाधारित प्रश्नोत्तरान्तर्गत उस चित्रांकनमें मध्य थड़ रूप तपागच्छको रखनेका कारण-सुधर्मा स्वामीसे वर्तमान तपागच्छ पर्यंत पट्ट परंपराके मुख्य तथ्य एवं स्वरूप-निग्रंथ गच्छके क्रमसे परिवर्तीत छ नाम और परिवर्तनके कारण-छठे नाम तपगच्छका स्वरूप-भ. पार्श्वनाथकी पट्ट-परंपरा और उनके वर्तमान गच्छ भेदोंका स्वरूप-विच्छेद हुए गच्छोंका विधान साधुकी दस सामाचारीके अर्थ और स्वरूप, मिच्छाकार 'समाचारीका विशेष स्वरूप-पट्टावली संबंधित अन्य अनेक शंकायेंगच्छ, कुल, शाखा, गण आदिके अर्थ और स्वरूप, आचार दिनकर' नामक ग्रन्थसे चार आर्यवेदकी प्रमाणिकता-दिगम्बराचार्य कृत 'ज्ञान सूर्योदय' नाटकाधारित बौद्ध मतोत्पत्ति, दिगंबरोंकी बीस पंथी-तेरापंथी तोतापंथी शाखायें, चार प्रकारके संघ आदिका स्वरूप-वल्लभीनगर भंगके समय गांधर्व वादिवैताल शांतिसूरिजी द्वारा श्री संघ और शासन रक्षाका स्वरूप-चंद्रकुलसे थेरापद्रिय गच्छकी उत्पत्ति आदि अनेक विषयों की शंकायें-अस्पष्टतायें-असमंजसता आदिके संतोष जन्य-यथास्थित संदर्भ सहित सर्वांग संपूर्ण प्रत्युत्तरसे उन विदेशी विद्वानका दिल जीत लिया। जिससे प्रभावित होकर उन्होंने अत्यन्त आदर भावसे उपकार अदा करने हेतु प्रशंसा पुष्पयुक्त (श्लोक द्वारा) अपने ग्रन्थको समर्पित किया-श्री आचार्य प्रवरके नाम। निष्कर्ष--श्री मगनलाल दलपतरामजीके माध्यमसे किये गये आचार्य देवके इन महत्वपूर्ण पत्र व्यवहारसे परवर्ती अनेक अभ्यासक जिज्ञासुओंकी शंका-समस्याओंका समाधान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। साथ ही ग्रन्थकारकी अनेक रचनाओंका अभिप्रेत स्वयं उनकी कलमसे ही स्पष्ट हो जाता है और कुछ नवीन तथ्योंका उद्घाटन भी यहाँ हुआ है। इस ग्रंथ संकलना के अभ्याससे सुरीश्वरजीके दिलमें बहती ज्ञान और ज्ञानीके प्रति सम्माननीय लागणीशीलताका एहसास होता है, जो उन्हें नम्र-सच्चे ज्ञानीके रूपमें हमारे सामने प्रत्यक्ष करती है। (193) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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