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________________ और साधुधर्मका विवरण-मार्गानुसारीके पैंतीस गुण-श्रावकके बारहव्रत-साधुके पंच महाव्रतसमभाव स्थिरता आदि सत्ताईस गुण-अठारह हजार शीलांगादिके पालनसे, दो प्रकारसे (सांसारिक और पारमार्थिक) मनुष्य जन्म साफल्यका एवं परंपरासे उच्चपद (मोक्षपद) प्राप्तिका आलेखन किया गया है। जैनेतर धर्मों के उपकार, श्री तीर्थंकर परमात्माओं की श्रेष्ठता प्रस्थापित करके भ.महावीर स्वामीका अत्यन्त संक्षिप्त जीवन-चरित्रका परिचय करवाकर, ईश्वर के अवतारवादके स्वरूपकी हास्यास्पदताको प्रकट किया है। अनंत गुणी अरिहंत परमात्माके कुछ गुण और सिद्धपदके गुणानुवाद-जैन शास्त्रों में धर्मका परस्पर प्रेमसंबंध एवं पदार्थशास्त्र, शिल्प-साहित्य-दर्शन-जीवनशास्त्र (अर्थशास्त्र), सामाजिक (नीति) शास्त्र, वैदकशास्त्र, संगीतशास्त्रादिसे संबंध और सह अस्तित्व बताते हुए धर्मसे देशोनति और रूढ़ि परम्पराका त्याग करनेका महत्त्व फरमाया है। रत्नत्रयी और तत्त्वत्रयी रूप धर्मके लक्षण निरूपित करके ग्रन्थकी समाप्ति की गयी है। निष्कर्ष-ग्रन्थकारके पूर्वरचित ग्रन्थों के कुछ विषयों में पुनरावृत्ति रूप लगनेवाले इस ग्रन्थ के सर्व विषयों में विशिष्ट लाक्षणिकताका नियोजन स्पष्ट दृष्टिगत होता है, क्योंकि इस ग्रन्थकी रचनाका प्रयोजन ही विलक्षण संयोगोंका परिपाक है। अतः इस ग्रन्थमें "बिन्दु में सिन्धु"की तासीर निहित करके ग्रन्थकारने तत्त्वाकांक्षियों के लिए तत्त्वपूंजको जिज्ञासुओं के आधार स्तंभ रूपमें प्रस्तुत किया है। ___-: ईसाई मत समीक्षा :ग्रन्थ परिचय--इस ग्रन्थ रचनाका आवश्यक प्रयोजन था-किसी स्वमत त्यागी ईसाईके “जैन मत परीक्षा” पुस्तककी प्ररूपणाओंका प्रत्युत्तर और ईसाई धर्मके भ्रामक-हास्यास्पद तथ्यों का उद्घाटन। 'जैनमत परीक्षा' पुस्तकानुसार जैनों के ऋद्धिवंत, उच्च पदवीधारी, बुद्धिवान होनासभीसे असत्य-स्वधर्म त्याग और शुद्ध-सत्य-जैनधर्म अंगीकार करने की प्रेरणा करना-वेदोक्त धर्मकी निंदा, कृष्णका नरकगमनादि प्ररूपणाओंका प्रत्युत्तर और ईसाई धर्मकी असमंजस, • कपोल-कल्पित गप्प-तौरेत, जबूर इंजिल आदि धर्मग्रन्थोंकी आयातो, तौरेत यात्रा-गिनतीलयव्यवस्था, समुएल-ऐयुबादिकी पुस्तकोमें प्ररूपित अज्ञानी-दीन-परवश-कामी आदि पचासों अवगुणधारी ईश्वरकी कल्पना-अनेक मनघडंत कथायें-ईश्वरका सृष्टि सृजन-ईश्वर, परमेश्वर पुत्र इसु, आचार्य मुसा आदिकी प्ररूपणामें प्रयुक्त कुयुक्तियाँ और ईश्वरादिकी चित्र-विचित्र लीलाओंका सविस्तीर्ण पृथक्करण करते हुए जैनोंके सैद्धान्तिक थिअरी, सृष्टि संचालन, भौगोलिक, खगोलिक विवरणोंको समाविष्ट किया गया है। विषय निरूपण-ग्रन्थके प्रारम्भमें ही “जैन मत परीक्षा" के प्रत्युत्तरमें जैनधर्मकी विशिष्ट धर्माराधनासे कर्मक्षय और पुण्योदय होनेसे अनायास ही समकित प्राप्ति, विपुल धन-ऋद्धि-समृद्धिकी प्राप्ति होना; मोक्षमार्ग-शाश्वत, संपूर्ण सुख प्राप्तिके हेतुभूत उत्तम धर्मके अंगीकरणकी स्वाभाविक रूपमें प्रेरणा और उससे अनेक भव्यात्माओंके आत्मकल्याण की संभवितता; हिंसक यज्ञोंसे भरपूर वैदिक धर्मकी (189 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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